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________________ उद्देशक ९ : टिप्पण ४. क्षीरशाला- जहां दूध, दही, नवनीत, तक्र आदि रखे जाते हैं।' ५. गंजशाला - जहां सन आदि सत्रह प्रकार के धान्य कूटे जाते हैं अथवा गंज का अर्थ है यव अतः गंजशाला अर्थात् यव रखने का स्थान ।' ६. महासनशाला जहां अशन, पान, खादिम आदि विविध खाद्य उपस्कृत किए जाते हैं। १९६ ६. सूत्र ८, ९ प्रस्तुत सूत्रद्वयी में राजा तथा रानी को देखने के संकल्प से जाने का प्रायश्चित्त बतलाया गया है। इस उद्देशक में चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का प्रसंग है। अन्य दर्शनीय स्थलों को देखने के संकल्प से जाने पर चतुर्लघु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि अन्य दर्शनीय पदार्थों अथवा स्थलों की अपेक्षा राजा के प्रवेश एवं निष्क्रमण तथा अलंकृत विभूषित राजरानियों को देखना अधिक दोषयुक्त है। भाष्यकार ने प्रस्तुत संदर्भ में अनेक दोषों की संभावना व्यक्त की है। जैसे - कोई राजा युद्ध के लिए निर्गमन कर रहा हो और साधुओं के दर्शन के बाद उस युद्ध में विजय प्राप्त हो जाए तो वह उस विजय को साधुओं के दर्शन को परिणाम मानकर बार-बार युद्ध से पूर्व साधु दर्शन की आकांक्षा करेगा। यदि वह पराजित हो जाए तो साधु-दर्शन को अपशकुन मानकर साधुओं के प्रति द्वेष करेगा, आहार, पानी, वसति आदि का व्यवच्छेद कर देगा। दूसरी ओर राजा की समृद्धि आदि को देखकर कोई साधु निदान कर सकता है, भुक्तभोगों की स्मृति से या कुतूहलवश साधना के मार्ग से च्युत हो सकता है।' अलंकृत राजरानियों को रागदृष्टि से देखने पर वे या उनके सुहृज्जन साधु के प्रति आशंका कर सकते हैं, लोकापवाद आदि का प्रसंग उपस्थित हो सकता है। अथवा उनकी ओर देखते रहने से ईर्ष्या में अनुपयुक्त भिक्षु के स्खलन, पतन, भाजनभेद आदि अन्य दोष संभव है।" १. निभा. भा. २ चू. पृ. ४५६ - खीरघरं जत्थ खीर-दधि-णवणीयतक्कादीणि अच्छति । २. वही - गंजसाला जत्थ सणसत्तरसाणि धण्णाणि कोट्टिज्जति । अहवा गंजा जवा, ते जत्थ अच्छंति सा गंजसाला । ३. वही - महाणससाला जत्थ असण पाणखातिमादीणि णाणाविभक्ख उवक्खडिज्जति । ४. निसीह. १२/१७-२९ ५. निभा. गा. २५४२ ६. वही, गा. २५४३ ७. वही, गा. २५४९ व उसकी चूर्णि ८. पाइय. ९. निमा गा. २५५२ शब्द विमर्श निसीहज्झयणं अभिसंधार- पर्यालोचन करना, निश्चय करना। ' ७. सूत्र १० जो राजा शिकार आदि के लिए अथवा गोष्ठी भोज (पिकनिक) के लिए बाहर गया हुआ है, वहां उसके द्वारा किसी भोज का आयोजन हो या तत्रस्थ कार्यटिकों, भिक्षुओं आदि को देने के लिए राजा की ओर से अशन, पान आदि की व्यवस्था हो, उसे ग्रहण करना भी राजपिण्ड ग्रहण करने के समान ही दोषों का हेतु है।" अतः प्रायश्चित्तार्ह है। शब्द विमर्श १. मंसखाय मृग आदि के शिकार के लिए निर्गत। " २. मच्छखाय - द्रह, नदी, समुद्र आदि में मत्स्य आदि के प्रयोजन से निर्गत । ३. छविखाय-छवि का अर्थ है-चावल आदि की फली। १३ फली, विविध प्रकार के फल खाने के लिए उद्यानिका हेतु निर्गत । १३ ८. सूत्र ११ राजा जहां परिषद् के साथ आहार कर रहा हो, वहां कोई विशिष्ट खाद्य-पेय उपहृत किया जाए, वह भी राजपिण्ड ही होता है अतः उस समस्त परिषद् के वहां से चले जाने से पूर्व वह उपबृंहणीय उपहार भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। यह प्रस्तुत सूत्र का अभिप्राय है। शब्द विमर्श १. उववूहणिया- उपबृंहणकारक (पुष्टिकारक) अशन आदि । जिस अशन आदि से मेघा, धारणा, इन्द्रियपाटव, शरीर एवं आयु कासवंर्धन हो, वे उपबृंहणकारण कहलाते हैं । १४ २. समीहिय-उपहार। ३. अणुट्ठिता - आसन छोड़ कर खड़े न हुए हों। १६ ४. अभिण्णा - परिषद् के कुछ लोग न चले गए हों । १७ ५. अव्वोच्छिण्णा - परिषद् के समस्त लोग न चले गए हों।" १०. वही, भा. २, चू.पू. ४५९ - मिगादिपारद्धिणिग्गता मंसखादगा । १९. वही - दह णइ समुद्देसु मच्छखादगा । १२. वही - छवी कलमादिसंगा । १३. वही ता खायन्ति निम्नया उज्जाणियाए वा जियकुलाण । १४. वही, गा. २५५४ मेहाधारण इंदिय, देहाऊणि विवद्धए जम्हा। उववूहणीय तम्हा, चउव्विहा सा उ असणादी ॥ १५. वही, भा. २, चू. पृ. ४५९ - समीहिता समीपमतिता, तं पुण पाहुडं । १६. वही, पृ. ४५० आसणाणि मोनुं द्विता अच्छति । १७. वही - ततो केति णिग्गता भिण्णा । १८. वही असे नाते वोच्छिष्णा ।
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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