SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (18) १. तितिणिक-तिंबुरुक वृक्ष की लकड़ी को जब प्रज्ज्वलित किया जाता है तो वह तड् तड् की आवाज करती है। इसी प्रकार गुरु के द्वारा उपालम्भ दिए जाने पर जो उसे सहन नहीं कर पाता और अपलाप शुरू कर देता है, वह तितिणिक कहलाता है। भाष्यकार ने आहारविषयक, उपकरणविषयक और वसतिविषयक तितिणक का उल्लेख किया है। २. चंचलचित्त-आगमों का पल्लवग्राही ज्ञान करने वाला। चंचलचित्त वाला यत्र तत्र के आलापकों को ही ग्रहण करता है। ३. गाणंगणिक-छह माह की अवधि से पूर्व ही एक गण से दूसरे गण में संक्रमण करने वाला। ४. दुर्बलचारित्र-धृति और वीर्य से परिहीन तथा पुष्ट कारण के बिना ही मूलगुण और उत्तरगुण संबंधी अपवादपदों की प्रतिसेवना करने वाला।' ५. आचार्य-परिभाषी-आचार्य को बालक, अकुलीन, मंदमेधा, द्रमक, बुद्धिविकल, अल्पलाभलब्धि वाला आदि कहकर उनका परिभव करने वाला। ६. वामावर्त-गुरु की आज्ञा के विपरीत आचरण करने वाला, जैसे-'आओ' कहने पर चले जाना और 'जाओ' कहने पर तत्काल पास में आकर बैठ जाना। ७. पिशुन-दूसरों के दोषों का उद्भावन कर प्रीति को समाप्त करने वाला। ८. आदि-अदृष्टभाव-आवश्यक से सूत्रकृतांग पर्यन्त जो अभिधेय है, उसे आदिम-भाव कहा जाता है, उसे न जानने वाला। ९. कृतसामाचारीक-उपसम्पदा और मंडली-इन दोनों प्रकार की सामाचारी को सम्यक्तया जानकर उनका समाचरण न करने वाला। १०. तरुणधर्मा-अवधि से पूर्व छेदसूत्रों का अध्ययन करने वाला। उल्लेखनीय है कि निसीहज्झयणं के लिए तीन और अन्य तीनों छेदसूत्रों के लिए पांच वर्ष की संयमपर्याय आवश्यक है। इससे पूर्व इन ग्रंथों के अध्ययन के लिए मुनि तरुणधर्मा होता है। ११. गर्वित-थोड़ा सा अध्ययन कर गर्व से अविनीत होने वाला। ऐसे दुर्विनीत को विद्या देने या विनय की महत्ता बताने का अर्थ है-छिन्नकर्ण और छिन्नहस्त को आभरण देना। १२. प्रकीर्णक छेदसूत्रों के रहस्यपूर्ण अर्थ को सुनकर उसे अपरिणत (अपरिपक्व) को बताने वाला । ज्ञातव्य है कि अपरिणत को उन रहस्यों पर प्रतीति नहीं होती। फलतः वह अर्हतों की अपकीर्ति करता है अथवा वह उत्प्रव्रजन कर देता है। १३. निन्हवी-जिसके पास ज्ञान प्राप्त किया, उसके नाम का निन्हवन-गोपन करने वाला। उपर्युक्त तितिणिक, चपल आदि सभी प्रकार के शिष्य छेदसूत्रों की वाचना के अनर्ह होते हैं। इसलिए आचार्य को कसौटी में उत्तीर्ण उसी शिष्य को छेदसूत्रों के रहस्य बताने चाहिए जो परिणामक है। अपरिणामक बुद्धि से अपरिपक्व होता है। वह उत्सर्गमार्ग को बलवान मानकर चलता है। इसके विपरीत अतिपरिणामक अपवादरुचि वाला होता है। परिणामक वह होता है, जो बुद्धि से परिपक्व और यथार्थग्राही होता है। जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की सापेक्षता के आधार पर वर्तन करता है। वह जहां उत्सर्ग बलवान होता है, वहां उत्सर्ग-मार्ग का अनुसरण करता है और जहां अपवाद बलवान होता है, वहां अपवाद-पथ का अनुसरण करता है।१२ पंचकल्पभाष्य में भी इसी तथ्य का प्रज्ञापन है।५३ १. बृभा. गा. ७६४ २. वही, गा. ७६५ ३. वही, गा. ७६८ ४. वही, गा. ७६९ ५. वही, गा. ७७२ ६. वही, गा. ७७४ ७. वही, गा. ७७५ ८. बृभा. गा. ७७६,७७७ ९. वही, गा. ७८१,७८२ १०. वही, गा. ७८४,७८५ ११. वही, गा. ७८६ १२. वही, गा. ७९२-७९७ १३. पंकभा. गा. १२२३-णाऊणं छेदसुत्तं, परिणामगे होति दायव्वं ।
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy