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________________ निसीहज्झयणं लिखने अथवा लिखवाने को प्रायश्चित्त योग्य कार्य माना गया है। भाष्यकार ने प्रस्तुत संदर्भ में विविध प्रकार से संवाद आदि लिखने का तथा उससे होने वाले दुष्परिणामों का विस्तृत वर्णन किया है।" ७. सूत्र १४-१८ प्रस्तुत आलापक में रागासक्त भिक्षु की रागात्मक प्रवृत्ति का निरूपण किया गया है। वह भिलावे का प्रयोग बताकर स्त्री के गुप्तांगों में समस्या पैदा करता है, फिर उसके उपचार की प्रक्रिया करता है । इस प्रकार के प्रायश्चित्तार्ह आचरण के लिए प्रस्तुत आलापक में अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान किया गया है । शब्द-विमर्श • पोसंत -योनि । २ • पृष्ठान्त-अपानद्वार । भल्लातक- भिलावा । उप्पाअ - उत्पक्व बनाना। चूर्णि में इसकी व्याख्या 'उत् प्राबल्येन पावयति उप्पारति' उपलब्ध होती है।" प्रतीत होता है पाचयति के स्थान पर लिपि दोष से प्रमादवशात् 'पावयति' हो गया है। भल्लातक का प्रयोग फोडे आदि को पकाने में किया जाता है। निशीथभाष्य की गाथा २२७० की चूर्णि से भी इसी अर्थ की पुष्टि होती है। ८. सूत्र १९-२४ कोई रागासक्त भिक्षु इस उद्देश्य से मलिन वस्त्र धारण करता है कि स्त्रियां उसकी आत्मार्थिता से प्रभावित होकर निःशंक रूप से उसके पास आए। इसी प्रकार कोई अन्य भिक्षु उसी प्रकार की मलिन एवं अवाञ्छनीय भावना से बहुमूल्य, अखण्ड, धोए हुए और रंगे हुए या रंगीन वस्त्रों को धारण करता है अथवा रागासक्त चेतना से किसी स्त्री को देने के लिए बहुमूल्य अखण्ड धौत या रक्त (रंगे " १. निभा. गा. २२६१-२२६६ २. वही, भा. २, चू.पू. ३८६ - पोषः मृगीपदमित्यर्थः । तस्य अंतानि पोषंतानि । ३. वही पिडिए अंतं पिठतं अपानद्वारमित्यर्थः । ४. वही ५. वही उप्पक्कं ममेयं दंसेहित्ति कार्य । ६. वही, पृ. ३८८ - सो चेव मलिणो धरेति । वरं मम एयाओ अत्तट्टभाविताओ मलिणवासस्स वीसंम्भं एंति । १३७ उद्देशक ६ : टिप्पण हुए) वस्त्र रखता है-ये सब ब्रह्मचर्य के लिए घातक प्रवृत्तियां हैं। ऐसा करने वाले के लिए गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान है। शब्द विमर्श • अहत - अखण्ड, मशीन से निकला हुआ।" • धौत-जल आदि से साफ किया हुआ । ' • चित्र - किसी एक वर्ण वाला । • विचित्र - दो, तीन रंगों से युक्त । " ९. सूत्र २५-७८ तीसरे उद्देशक में सूत्र १६ से ७८ तक पाद परिकर्म से लेकर शीर्षद्वारिका पर्यन्त सारी प्रवृत्तियों को निष्प्रयोजन अथवा अयतना से करने का प्रायश्चित प्रज्ञप्त है। वहां इनका प्रायश्चित्त मासलघु है। प्रस्तुत उद्देशक में उन्हीं प्रवृत्तियों का अब्रह्मसेवन के संकल्प से करने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। मैथुनभाव से परिणत होने वाले भिक्षु की ये प्रवृत्तियां मैथुनसंज्ञा के अन्तर्गत हैं अतः इनका प्रायश्चित्त गुरु चातुर्मासिक है। १०. सूत्र ७९ ज्ञान, दर्शन, चारित्र की वृद्धि के लिए सेवन की गई विकृति (विगय) भी कदाचित् भिक्षु को उत्पथगामी बना सकती है, उसके मोह को उद्दीप्त कर सकती है तो सुकुमार, कमनीय बनने के लिए अब्रह्म सेवन के संकल्प से सेवित विकृति की तो बात ही क्या ?" अतः प्रस्तुत सूत्र में सुकुमारता, अभिरमणीयता आदि के उद्देश्य से विगय खाने वाले भिक्षु के लिए अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्वित्त बतलाया गया है। शब्द विमर्श - खांड बूरा (देशी चीनी) मत्स्यण्डिका-मीजां खांड अथवा मिश्री । ७. वही अहयं णाम तंतुग्गतं । ८. वही पाणादिणा मलस्स फेडणं धोयं । ९. वही चित्तं णाम एगतरवण्णुज्जलं । १०. वही विचित्तं णाम दोहिं तिहिं वा सव्वेहिं वा उज्जलं । १९. वही, गा. २२८४ णाणादिसंयणा, विसेविता पोति उप्पहं बिगती। किं पुण जो पडिसेवति विगती वण्णादिणं कज्जे ॥
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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