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________________ १३२ उद्देशक ६ : सूत्र ५८-६३ ५८. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुण- यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया वडियाए अप्पणो दंते फुमेज्ज वा आत्मनः दन्तान् ‘फुमेज्ज' (फूत्कुर्याद्) रएज्ज वा, फुमेंतं वा रएंतं वा । वा रजेद् वा, 'फुतं' (फूत्कुर्वन्तं) वा सातिज्जति॥ रजन्तं वा स्वदते। निसीहज्झयणं ५८. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर अब्रह्म-सेवन के संकल्प से अपने दांतों पर फूंक देता है अथवा रंग लगाता है और फूंक देने अथवा रंग लगाने वाले का अनुमोदन करता है। उट्ठ-पदं ओष्ठ-पदम् ओष्ठ-पद ५९. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहण- यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया ५९. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर वडियाए अप्पणो उढे आमज्जेज्ज आत्मनः ओष्ठौ आमृज्याद् वा प्रमृज्याद् अब्रह्म-सेवन के संकल्प से अपने ओष्ठ वा पमज्जेज्ज वा, आमज्जंतं वा वा, आमाजन्तं वा प्रमार्जन्तं वा स्वदते। का आमार्जन करता है अथवा प्रमार्जन करता पमज्जंतं वा सातिज्जति॥ है और आमार्जन अथवा प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करता है। ६०. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुण- यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया वडियाए अप्पणो उद्धे संवाहेज्ज वा आत्मनः ओष्ठौ संवाहयेद् वा परिमर्दयेद् पलिमहेज्ज वा, संवाहेंतं वा वा, संवाहयन्तं वा परिमर्दयन्तं वा स्वदते। पलिमहेंतं वा सतिज्जति॥ ६०. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर अब्रह्म-सेवन के संकल्प से अपने ओष्ठ का संबाधन करता है अथवा परिमर्दन करता है और संबाधन अथवा परिमर्दन करने वाले का अनुमोदन करता है। ६१. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुण- यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया ६१. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर वडियाए अप्पणो उद्धे तेल्लेण वा आत्मनः ओष्ठौ तैलेन वा घृतेन वा वसया अब्रह्म-सेवन के संकल्प से ओष्ठ का तैल, घएण वा वसाए वा णवणीएण वा वा नवनीतेन वा अभ्यज्याद् वा म्रक्षेद् घृत, वसा अथवा मक्खन से अभ्यंगन करता अब्भंगेज्ज वा मक्खेज्ज वा, वा, अभ्यञ्जन्तं वा म्रक्षन्तं वा स्वदते। है अथवा म्रक्षण करता है और अभ्यंगन अब्भंगेंतं वा मक्खेंतं वा अथवा म्रक्षण करने वाले का अनुमोदन करता सातिज्जति॥ ६२. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुण- यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया वडियाए अप्पणो उट्टे लोद्धेण वा आत्मनः ओष्ठौ लोभ्रेण वा कल्केन वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा चूर्णेन वा वर्णेन वा उल्लोलयेद्वा उद्वर्तेत उल्लोलेज्ज वा उव्वट्टेज्ज वा, वा, उल्लोलयन्तं वा उद्वर्तमानं वा उल्लोलेंतं वा उव्वदे॒तं वा स्वदते। सातिज्जति॥ ६२. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर अब्रह्म-सेवन के संकल्प से अपने ओष्ठ पर लोध, कल्क, चूर्ण अथवा वर्ण का लेप करता है अथवा उद्वर्तन करता है और लेप अथवा उद्वर्तन करने वाले का अनुमोदन करता है। ६३. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुण- यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया वडियाए अप्पणो उद्धे सीओदग- आत्मनः ओष्ठौ शीतोदकविकृतेन वा वियडेण वा उसिणोदग-वियडेण वा उष्णोदकविकृतेन वा उत्क्षालयेद् वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा, प्रधावेद् वा, उत्क्षालयन्तं वा प्रधावन्तं उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा वा स्वदते । सातिज्जति॥ ६३. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर अब्रह्म-सेवन के संकल्प से अपने ओष्ठ का प्रासुक शीतल जल से अथवा प्रासुक उष्ण जल से उत्क्षालन करता है अथवा प्रधावन करता है और उत्क्षालन अथवा प्रधावन करने वाले का अनुमोदन करता है।
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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