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________________ भूमिका जैन साहित्य का प्राचीनतम भाग आगम है। आगम का अर्थ है-आप्त का वचन । ' आप्तपुरुषं राग-द्वेष से उपरत होते हैं। वे यथार्थ के ज्ञाता तथा प्रज्ञापक होते हैं। इसलिए उनकी वाणी को आगम कहा गया है। आगमों का प्राचीनतम वर्गीकरण समवाओ में मिलता है। वहां आगम के दो भेद प्रज्ञप्त हैं - १. द्वादशांग गणिपिटक और २. चतुर्दश पूर्व । दूसरा वर्गीकरण अनुयोगद्वार में है। आर्यरक्षित ने सम्पूर्ण आगम साहित्य को चार अनुयोगों में विभक्त किया। वे इस प्रकार हैं-१ चरणकरणानुयोग २. धर्मकथानुयोग ३. गणितानुयोग ४. द्रव्यानुयोग । तीसरा वर्गीकरण नंदी का है। नंदी में सूत्रकार ने अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ये दो भेद करके अंगबाह्य के आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त ये दो भेद और किए है। वहां कालिक और उत्कालिक का भेद भी प्रज्ञप्त है। यद्यपि ठाणं में भी अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य का उल्लेख है लेकिन वहां अंगबाह्य का संक्षिप्त प्रज्ञापन है।' अंगबाह्य ग्रंथों की सबसे बड़ी तालिका नंदी में उपलब्ध होती है। वर्तमान में जो वर्गीकरण प्राप्त होता है, वह इस प्रकार है- १. अंग २. उपांग ३. मूल ४. छेद। यह सबसे अर्वाचीन वर्गीकरण है। प्रभावक चरित में इसका संकेत प्राप्त होता है।" वर्तमान वर्गीकरण के अनुसार दसाओ, कप्पो, ववहारो और निसीहज्झयणं-ये चारों छेदसूत्र हैं। नंदी में अंगबाह्य कालिक ग्रंथों की सूची है। वहां इन चारों का एक क्रम में उल्लेख है। चतुर्विध अनुयोग की दृष्टि से इन चारों का समावेश चरणकरणानुयोग में किया गया है ओघनियुक्ति भाष्य में उल्लेख आता है ये चारों ही अनुयोग अपने-अपने विषय में सर्वशक्तिसंपत्र हैं तथापि चरणकरणानुयोग इन सबमें महर्द्धिक है क्योंकि शेष तीनों अनुयोग भी चारित्र की प्रतिपत्ति एवं सुरक्षा के हेतु बनते हैं।' 'छेदसूत्र' नामकरण 'छेद' शब्द 'छिद्' धातु के साथ घञ् प्रत्यय के योग से निष्पन्न हुआ है। इसका अर्थ है-काटना, गिराना, तोड़ना, खंड-खंड करना, निराकरण करना, छिन्न भिन्न करना इत्यादि । दिगम्बर परम्परा का एक ग्रंथ है-छेदपिंड वहां प्रायश्चित्त के आठ पर्यायवाची नाम निर्दिष्ट हैं। उनमें एक नाम है-छेद।" प्राचीन आगमों में 'छेदसूत्र' नाम का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है इसका सबसे प्राचीन उल्लेख आवश्यक नियुक्ति में प्राप्त होता है। नियुक्तिकार ने लिखा है- 'महाकल्पसूत्र और सभी छेदसूत्र कालिक सूत्र हैं। इनका समावेश चरणकरणानुयोग में होता है।" बाद में विशेषावश्यक भाष्य, निशीथभाष्य", व्यवहारभाष्य में भी इस शब्द का प्रयोग हुआ है। १. आवचू १ पृ. २८-आगमो णाम अत्तवयणं । २. सम, प्रकीर्णक समवाय सू. ८८ ३. दअचू पृ. २, आवनि गा. ४७८ ४. नंदी, सू. ७४-७६, ८० ५. ठाणं २ / १०४ - १०६ ६. नंदी सू. ७४-७९ ७. अणु. भू. पू. १० ८. ओभा. गा. ६, ७ सविसयबलवत्तं पुण जुज्जइ तहवि अ महिड्डिअं चरणं । चारितरखणडा जेणिअरे तिनि अणुओगा ॥ चरणपडिवत्तिहेउं धम्मकहा कालदिक्खमाईआ । दविए दंसणसुद्धी दंसणसुद्धस्स चरणं तु । ९. आप्टे (संस्कृत हिन्दी कोश) १०. छेद गा. ३ पायच्छितं छेदो मलहरणं पावणासणं सोही । पुण्ण पवित्रं पावणामिदि पावछित्तनामाई ।। ११. आवनि. ७७७ जं च महाकप्पसुर्य जाणि अ सेसाणि छेअसुत्ताणि । चरणकरणाणुओगो ति कालियत्थे उवगयाणि ।। १२. विभा. गा. २७७७ १३. निभा. गा. ६१९० १४. व्यभा. गा. १८२९
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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