SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उद्देशक ४ : टिप्पण वृद्ध, ग्लान सबका उपकारक है। अतः जो स्थापनाकुलों का परिहार करता है, वह बाल, वृद्ध आदि सब पर अनुकम्पा करता है। तथा उद्गम आदि दोषों से बच जाता है।' विस्तार हेतु द्रष्टव्य निशीथभाष्य गा. १६१७-१६६५ तथा बृहत्कल्पभाष्य गा. १५७९ - १६९६ । ६. सूत्र २२ भिक्षु निर्ग्रन्थियों के उपाश्रय में जाए इस विषय में चार भंग 莱 १. निष्कारण, अविधि से २. निष्कारण, विधि से ३. कारण में, अविधि से ४. कारण में, विधि से। प्रस्तुत सूत्र का संबंध तृतीय भंग से है। अविधि से निर्ग्रन्थियों के उपाश्रय में प्रवेश करने से आत्मविराधना एवं संयमविराधना संबंधी अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। भाष्य एवं चूर्णि में इनका विस्तृत एवं मनोवैज्ञानिक चित्रण हुआ है।' निर्ग्रन्थियों की उपधि आदि की व्यवस्था, उनकी समाधि, बाह्य आभ्यन्तर उपसर्गों के निवारण, अनशन आदि कारणों से यदि आचार्य या कुल स्थविर आदि को निर्ग्रन्थियों के उपाश्रय में जाना हो तो विधिपूर्वक अपने आगमन को सूचित करके प्रविष्ट होना चाहिए। उपाश्रय के अग्रद्वार, मध्यभाग एवं आसन्न भाग में नैधिकी का उच्चारण करना विधिपूर्वक प्रवेश है - ऐसा चूर्णिकार का प्रतिपाद्य है। ७. सूत्र २३ - निर्ग्रन्थियों के आगमन पथ में भिक्षु के उपकरण निक्षेप के मुख्यतः दो कारण हो सकते हैं १. अनाभोग किसी कार्यवश भिक्षु उस मार्ग से निकले और उसका कोई उपकरण भूल से वहां छूट जाए या गिर जाए। २. कैतव - किसी दूषित भाव के कारण वह अपना उपकरण वहां छोड़ दे। प्रस्तुत सूत्र में विस्मृति के कारण रहे हुए उपकरण का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है क्योंकि इस प्रमाद के कारण साधु-साध्वियों के परस्पर मिलन, संलाप आदि के कारण भाव-संबंध होने की तथा चारित्र १. निभा. गा. १६२६ व उसकी चूर्णि २. वही, गा. १६७०-१६९५ । ३. वही, गा. १६९९-१७०१ ४. वही, भा. २, पृ. २५४- अग्गद्दारे, मज्झे, आसन्ने । एतेसु तीसु वि णिसीहिवं...... | ५. वही, गा. १७८७ ६. वही, गा. १७८६ ७. वही, गा. १७९६ ९२ निसीहज्झयणं विराधना की संभावना रहती है।' निशीथभाष्य एवं चूर्णि में कैतवपूर्वक दूषित भाव से उपकरण छोड़ने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। भाष्यकार का मत है-यदि भूल से किसी भिक्षु का उपकरण उपाश्रय से अधिक दूर पड़ा हुआ मिले तो स्थविरा साध्वियां लाकर यतनापूर्वक उसे गुरु के समक्ष जमीन पर रख दे। ८. सूत्र २४, २५ जो कार्य भिक्षु के संयमपर्यवों के अधःकरण में निमित्त बनता है अथवा उसकी आत्मा को नरक, तिर्यञ्च आदि अधोगति में ले जाता है, वह अधिकरण कहलाता है। " निर्युक्ति, भाष्य एवं चूर्णि में अधिकरण का अर्थ वस्तु परिवर्तन (निर्वर्तन, संयोजना आदि) और कषायवश आरम्भ (हिंसा का संकल्प), संरंभ (किसी को परितप्त करना) एवं समारम्भ (वध) करना किया गया है। किन्तु अग्रिम सूत्र के संदर्भ में अधिकरण का अर्थ 'कलह' करना अधिक संगत है। नए सिरे से कलह उत्पन्न करना अथवा उपशान्त कलह की उदीरणा करना-ये दोनों ही असमाधिस्थान है।" कलह से भिक्षु मनःसंताप, अपयश एवं ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र की हानि करता है तथा संसार वृद्धि करता है। श्रामण्य का सार है उपशम" कषायाविष्ट साधु मुहूर्तमात्र में देशोनकरोड़पूर्व में अर्जित अपने श्रामण्य फल को व्यर्थ गंवा देता है। जं अज्जियं चरितं, देसूणाए वि पुव्वकोडीए । तंपि कसाइयमेत्तो, नासेइ नरो मुहुत्तेणं ।। १२ ९. सूत्र २६ हास्य मोहनीय कर्म के उदय से हास्य की उत्पत्ति होती है। तथाविध दृश्य देखने, वैसी बात कहने, सुनने या स्मरण करने पर भी हंसी आना स्वाभाविक है। पर भिक्षु ठहाका मारकर न हंसे। भाष्यकार ने अत्यधिक हास्य के अनेक दोष बताए हैं, जैसे-उपशान्त रोग का उभरना, अभिनव शूल की उत्पत्ति, मुंह का असंपुटित रह जाना आदि।‍ - प्रस्तुत सन्दर्भ में भाष्यकार ने हास्य का एक दोष मुंह में संपातिम जीवों का गिरना बताया है जिससे यह प्रतीत होता है कि उस समय तक साधु-साध्वी मुखयस्त्रिका नहीं बांधते थे। ८. वही, भा. २, चू. पृ. २७९ - अधोधः संयमकंडकेषु करोतीत्यर्थः । नरकतिर्यग्गतिषु वा आत्मानमधितिकरणं वा अधिकरणं अल्पसत्त्वमित्यर्थः ।... अधीकरणं अबुद्धिकरणमित्यर्थः । ९. वही, गा. १७९८, १८१० १०. दसाओ १।९ ११. कप्पो १।३४ १२. निभा. गा. २७९३ १३. वही, गा. १८२५, २६
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy