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________________ ८८ उद्देशक ४: सूत्र १०६-११२ मलं वाणीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा, णीहरेतं वा विसोहेंतं वा सातिज्जति॥ विशोधयेद्वा, निस्सरन्तं वा विशोधयन्तं वा स्वदते । निसीहज्झयणं निर्हरण करता है अथवा विशोधन करता है और निर्हरण अथवा विशोधन करने वाले का अनुमोदन करता है। १०६. जे भिक्खू अण्णमण्णस्स यो भिक्षुः अन्योन्यस्य अक्षिमलं वा १०६. जो भिक्षु परस्पर एक दूसरे भिक्षु की अच्छिमलं वा कण्णमलं वा दंतमलं ___ कर्णमलं वा दन्तमलं वा नखमलं वा आंख के मैल, कान के मैल, दांत के मैल वा णहमलं वा णीहरेज्ज वा निस्सरेद् वा विशोधयेद् वा, निस्सरन्तं अथवा नख के मैल का निर्हरण करता है विसोहेज्ज वा, णीहरतं वा विसोहेंतं वा विशोधयन्तं वा स्वदते । अथवा विशोधन करता है और निर्हरण वा सातिज्जति॥ अथवा विशोधन करने वाले का अनुमोदन करता है। सीसवारिय-पदं शीर्षद्वारिका-पदम् शीर्षद्वारिका-पद १०७. जे भिक्खू गामाणुगामं यो भिक्षुः ग्रामानुग्रामं दूयमानः अन्योन्यस्य १०७. जो भिक्षु ग्रामानुग्राम परिव्रजन करता दूइज्जमाणे अण्णमण्णस्स शीर्षद्वारिकां करोति, कुर्वन्तं वा स्वदते। हुआ परस्पर एक दूसरे भिक्षु का सिर ढंकता सीसवारियं करेति, करेंतं वा है अथवा सिर ढंकने वाले का अनुमोदन सातिज्जति॥ करता है।३ उच्चारप्रस्रवण-पद उच्चार-पासवण-पदं उच्चार-प्रस्रवण-पदम् १०८. जे भिक्खू साणुप्पए उच्चार- यो भिक्षुः 'साणुप्पए' उच्चार-प्रस्रवणभूमि पासवणभूमि ण पडिलेहेति, ण न प्रतिलिखति, न प्रतिलिखन्तं वा पडिलेहेंतं वा सातिज्जति।। स्वदते। १०८. जो भिक्षु दिन की चौथी प्रहर के चतुर्थ भाग में उच्चार-प्रसवण भूमि का प्रतिलेखन नहीं करता अथवा प्रतिलेखन न करने वाले का अनुमोदन करता है। १०९. जे भिक्खू तओ उच्चार- यो भिक्षुः तिसः उच्चारप्रस्रवणभूमीः न १०९. जो भिक्षु तीन उच्चार-प्रसवण भूमियों पासवणभूमीओ ण पडिलेहेति, ण का प्रतिलेखन नहीं करता अथवा प्रतिलेखन पडिलेहेंतं वा सातिज्जति॥ न करने वाले का अनुमोदन करता है।५ ११०. जे भिक्खू खुड्डागंसि थंडिलंसि यो भिक्षुः क्षुल्लके स्थण्डिले ११०. जो भिक्षु क्षुद्र (छोटे) स्थंडिल पर उच्चार-पासवणं परिढुवेति, परिढुवेंतं उच्चारप्रसवणं परिष्ठापयति, परिष्ठापयन्तं उच्चार-प्रस्रवण का परिष्ठापन करता है वा सातिज्जाति॥ वा स्वदते। अथवा परिष्ठापन करने वाले का अनुमोदन करता है।१६ १११. जे भिक्खू उच्चार-पासवणं अविहीए परिढुवेति, परिढवेंतं वा सातिज्जाति॥ यो भिक्षुः उच्चारप्रस्रवणम् अविधिना १११. जो भिक्षु उच्चार-प्रसवण का अविधि से परिष्ठापयति, परिष्ठापयन्तं वा स्वदते। परिष्ठापन करता है अथवा परिष्ठापन करने वाले का अनुमोदन करता है। ११२. जे भिक्खू उच्चार-पासवणं यो भिक्षुः उच्चारप्रसवणं परिष्ठाप्य न परिट्ठवेत्ता ण पुंछति, ण पुंछंतं वा प्रोञ्छति, न प्रोज्च्छन्तं वा स्वदते। ११२. जो भिक्षु उच्चार-प्रसवण का विसर्जन कर विसर्जन-प्रदेश को नहीं पौंछता (शौच
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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