SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८६ निसीहज्झयणं उद्देशक ४ : सूत्र ९३-९९ ९३. जे भिक्खू अण्णमण्णस्स उडे फुमेज्ज वा रएज्ज वा, फुतं वा रएंतं वा सातिज्जति॥ यो भिक्षुः अन्योन्यस्य ओष्ठौ ‘फुमेज्ज' ९३. जो भिक्षु परस्पर एक दूसरे भिक्षु के ओष्ठ (फूत्कुर्याद्) वा रजेद् वा, 'फुत' पर फूंक देता है अथवा रंग लगाता है और (फूत्कुर्वन्तं) वा रजन्तं वा स्वदते । फूंक देने अथवा रंग लगाने वाले का अनुमोदन करता है। दीह-रोम-पदं दीर्घरोम-पदम् दीर्घरोम-पद ९४. जे भिक्खू अण्णमण्णस्स दीहाइं यो भिक्षुः अन्योन्यस्य दीर्घाणि ९४. जो भिक्षु परस्पर एक दूसरे भिक्षु की उत्तरोट्ठ-रोमाइंकप्पेज्ज वा संठवेज्ज उत्तरौष्ठरोमाणि कल्पेत वा संस्थापयेद् उत्तरोष्ठ की दीर्घ रोमराजि को काटता है वा, कप्तं वा संठवेंतं वा वा, कल्पमानं वा संस्थापयन्तं वा स्वदते। अथवा व्यवस्थित करता है और काटने सातिज्जति॥ अथवा व्यवस्थित करने वाले का अनुमोदन करता है। ९५. जे भिक्खू अण्णमण्णस्स दीहाई यो भिक्षुः अन्योन्यस्य दीर्घाणि ९५. जो भिक्षु परस्पर एक दूसरे भिक्षु के नाक णासा-रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज नासारोमाणि कल्पेत वा संस्थापयेद् वा, की दीर्घ रोमराजि को काटता है अथवा वा, कप्तं वा संठवेंतं वा कल्पमानं वा संस्थापयन्तं वा स्वदते। व्यवस्थित करता है और काटने अथवा सातिज्जति॥ व्यवस्थित करने वाले का अनुमोदन करता अच्छि -पत्त-पदं अक्षिपत्र-पदम् अक्षिपत्र-पद ९६. जे भिक्खू अण्णमण्णस्स दीहाई यो भिक्षुः अन्योन्यस्य दीर्घाणि ९६. जो भिक्षु परस्पर एक दूसरे की भिक्षु की अच्छि-पत्ताई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज अक्षिपत्राणि कल्पेत वा संस्थापयेद् वा, दीर्घ अक्षिपत्रों को काटता है अथवा वा, कप्तं वा संठवेंतं वा कल्पमानं वा संस्थापयन्तं वा स्वदते। व्यवस्थित करता है और काटने अथवा सातिज्जति॥ व्यवस्थित करने वाले का अनुमोदन करता अच्छि -पदं अक्षि-पदम् अक्षि-पद ९७. जे भिक्खू अण्णमण्णस्स यो भिक्षुः अन्योन्यस्य अक्षिणी आमृज्याद् ९७. जो भिक्षु परस्पर एक दूसरे भिक्षु की आंखों अच्छीणि आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा प्रमृज्याद्वा, आमार्जन्तं वा प्रमार्जन्तं का आमार्जन करता है अथवा प्रमार्जन करता वा, आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा वा स्वदते । है और आमार्जन अथवा प्रमार्जन करने वाले सातिज्जति॥ का अनुमोदन करता है। ९८. जे भिक्खू अण्णमण्णस्स यो भिक्षुः अन्योन्यस्य अक्षिणी संवाहयेद् ९८. जो भिक्षु परस्पर एक दूसरे भिक्षु की आंखों अच्छीणि संवाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा परिमर्दयेद् वा, संवाहयन्तं वा का संबाधन करता है अथवा परिमर्दन करता वा, संवाहेंतं वा पलिमहेंतं वा परिमर्दयन्तं वा स्वदते । है और संबाधन अथवा परिमर्दन करने वाले सातिज्जति॥ का अनुमोदन करता है। ९९. जे भिक्खू अण्णमण्णस्स यो भिक्षुः अन्यान्यस्य आक्षणा तलन वा ९९. जा। यो भिक्षुः अन्योन्यस्य अक्षिणी तैलेन वा ९९. जो भिक्षु परस्पर एक दूसरे भिक्षु की आंखों अच्छीणि तेल्लेण वा घएण वा घृतेन वा वसया वा नवनीतेन वा का तेल, घृत, वसा अथवा मक्खन से
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy