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________________ ७६ निसीहज्झयणं उद्देशक ४ : सूत्र २४-३३ अहिगरण-पदं २४. जे भिक्खू णवाई अणुप्पण्णाई अहिगरणाई उप्पाएति, उप्याएं वा सातिज्जति॥ अधिकरण-पदम् अधिकरण-पद यो भिक्षुः नवानि अनुत्पन्नानि २४. जो भिक्षु नए सिरे से अनुत्पन्न अधिकरण अधिकरणानि उत्पादयति, उत्पादयन्तं वा (कलह) को उत्पन्न करता है अथवा उत्पन्न स्वदते। करने वाले का अनुमोदन करता है। २५. जे भिक्खू पोराणाई अहिगरणाई खामिय-विओसवियाई पुणो उदीरेति, उदीरेंतं वा सातिज्जति ॥ यो भिक्षुः पौराणानि अधिकरणानि क्षामितव्युपशमितानि पुनः उदीरयति, उदीरयन्तं वा स्वदते। २५. जो भिक्षु क्षमित (शान्त) और उपशमित पुराने अधिकरणों को पुनः उदीरित करता है और उदीरित करने वाले का अनुमोदन करता है। हसण-पदं हसन-पदम् हास्य-पद २६. जे भिक्खू मुहं विप्फालिय- यो भिक्षुः मुखं विस्फार्य विस्फार्य हसति, २६. जो भिक्षु मुंह को विस्फारित कर-विस्फारित विप्फालिय हसति, हसंतं वा हसन्तं वा स्वदते। कर हंसता है (अट्टहास करता है) अथवा सातिज्जति॥ हंसने वाले का अनुमोदन करता है।' पासत्थादीणं संघाडयं-पदं पार्श्वस्थादीनां संघाटक-पदम् पार्श्वस्थ आदि का संघाटक-पद २७. जे भिक्खू पासत्थस्स संघाडयं यो भिक्षुः पार्श्वस्थाय संघाटकं ददाति, २७. जो भिक्षु पार्श्वस्थ को संघाटक देता है देति, देंतं वा सातिज्जति ।। ददन्तं वा स्वदते। __ अथवा देने वाले का अनुमोदन करता है। २८. जे भिक्खू पासत्थस्स संघाडयं यो भिक्षुः पार्श्वस्थस्य संघाटकं २८. जो भिक्षु पार्श्वस्थ से संघाटक को ग्रहण पडिच्छति, पडिच्छंतं वा प्रतीच्छति, प्रतीच्छन्तं वा स्वदते। करता है अथवा ग्रहण करने वाले का सातिज्जति। अनुमोदन करता है। २९. जे भिक्खू ओसण्णस्स संघाडयं देति, देंतं वा सातिज्जति॥ यो भिक्षुः अवसन्नाय संघाटकं ददाति, ददन्तं वा स्वदते। २९. जो भिक्षु अवसन्न को संघाटक देता है अथवा देने वाले का अनुमोदन करता है। ३०. जे भिक्खू ओसण्णस्स संघाडयं यो भिक्षुः अवसन्नस्य संघाटकं प्रतीच्छति, पडिच्छति, पडिच्छंतं वा प्रतीच्छन्तं वा स्वदते । सातिज्जति॥ ३०. जो भिक्षु अवसन्न से संघाटक को ग्रहण करता है अथवा ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। ३१. जे भिक्खू कुसीलस्स संघाडयं देति, देंतं वा सातिज्जति ।। यो भिक्षुः कुशीलाय संघाटकं ददाति, ३१. जो भिक्षु कुशील को संघाटक देता है ददन्तं वा स्वदते। __ अथवा देने वाले का अनुमोदन करता है। ३२. जे भिक्खू कुसीलस्स संघाडयं यो भिक्षुः कुशीलस्य संघाटकं प्रतीच्छति, ३२. जो भिक्षु कुशील से संघाटक को ग्रहण पडिच्छति, पडिच्छतं वा प्रतीच्छन्तं वा स्वदते। करता है अथवा ग्रहण करने वाले का सातिज्जति॥ अनुमोदन करता है। ३३. जे भिक्खू नितियस्स संघाडयं देति, यो भिक्षुः नैत्यिकाय संघाटकं ददाति, ३३. जो भिक्षु नित्यक को संघाटक देता है देंतं वा सातिज्जति॥ ददन्तं वा स्वदते। अथवा देने वाले का अनुमोदन करता है।
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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