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________________ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान और जीवका परिणमन परस्पर निमित्तक है। इससे स्पष्ट है कि आत्मा अपने भावोंके द्वारा अपने परिणमनका कर्ता होता है । पुद्गल कर्मकृत भावोंका कर्ता नहीं है । तथ्य यह है कि सुदगलके जो ज्ञानावरणादि कर्म हैं, उनका कर्ता पुद्गल है और जीवके जो रागादि भाव हैं, उनका कर्ता जीव' है। आत्मा और पुद्गल इन दोनोंमें वैभाविक शक्ति है। इस शक्तिके कारण ही आत्मा मिथ्या दर्शनादि विभावरूप परिणमन स्वयं करती है और पुद्गल ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमन करता है । इस प्रकारके परिणमनको ही निमित्त-नैमित्तिक भाव कहा जाता है । निमित्त-नैमित्तिक, कर्तृ-कर्मभाव स्वीकार करनेपर द्विक्रियाकारित्वका दोष भी नहीं आता है । यतः निमित्त अपने परिणमनके साथ उपादान परिणमनका कर्ता नहीं है । जीव न तो घटका कर्ता है, न तो पटका कर्ता है और न शेष अन्य द्रव्योंका ही। जीव अपने योग और उपयोगका कर्ता है । आत्मा घटादि और क्रोधादि पर द्रव्यात्मक कर्मोंका कर्त्ता न तो व्याप्य-व्यापक भावसे है और न निमित्त-नैमित्तिक भाव से ही; पर अनित्य योग और उपयोग ही घट पटादि द्रव्योंके निमित्त कर्ता हैं । जब आत्मा ऐसा विकल्प करती है कि 'मैं घटको बनाऊँ तब काययोग द्वारा आत्मप्रदेशोंमें चंचलता आती है और चंचलताकी निमित्तता पाकर हस्तादिके व्यापार द्वारा दण्डसे चक्रका परिभ्रमण होता है और इससे घटादिकी निष्पत्ति होती है । ये विकल्प और योग अनित्य हैं । अज्ञान वश आत्मा इनका कर्ता हो भी सकता है, पर 'पर' द्रव्यात्मक कर्मोंका कर्ता कदापि सम्भव नहीं है। ____ तथ्य यह है कि निमित्तके दो भेद हैं-(१) साक्षात् निमित्त और (२) परम्परा निमित्त । कुम्भकार अपने योग और उपयोगका कर्ता है । यह साक्षात् निमित्तकी अपेक्षा कथन है । यतः इनके साथ कुम्भकारका साक्षात् सम्बन्ध है और कुम्भकारके योग और उपयोगसे दण्ड चक्रादि द्वारा घटकी उत्पत्ति परम्परा निमित्तकी अपेक्षा है। जब परम्परा निमित्तसे होनेवाले निमित्त-नैमित्तिकको गौण कर कथन किया जाता है तब जीवको घटपटादिका कर्ता नहीं माना जाता। किन्तु जब परम्परा निमित्तसे होनेवाले निमित्त-नैमित्तिक भावको प्रमुखता दी जाती है, तब जीवको घट-पटादिका कर्ता कहा जाता है । १. जीवपरिणामहेदुं कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति । पुग्गलकम्मनिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ । णवि कुवइ कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे । अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणाम जाण दोह्लपि । एएण कारणेण दु कत्ता आदा सएण भावेण । पुग्गलकम्मकयाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं ॥ -समयसार, श्रुतभण्डार प्रकाशन समिति फल्टन, गाथा ८०-८२ २. जीवो ण करोदि घडं णेव पडं णेव सेसगे दन्वे । जोगुवओगा उप्पादगा य तेसिं हवदि कत्ता ।। -वही, गाथा १००
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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