SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 436
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तिलोयपण्णत्तिके श्रेणी व्यवहारके दस सूत्रोंकी उपपत्ति तिलोयपण्णत्ति करणानुयोगका प्रसिद्ध ग्रन्थ है । इसमें सैद्धान्तिक बातोंके स्पष्टीकरणके लिए गणितका अवलम्बन लिया गया है । जैनाचार्योंने आध्यात्मिक विषयोंका निरूपण गणितके नियमोंके आधारपर किया है। गणितका स्थान जैन साहित्यमें महत्त्वपूर्ण है। इसका सम्बन्ध महावीराचार्यने संगीत, तर्कशास्त्र, नाटक, आयुर्वेद, कला-कौशल, व्याकरण आदिके साथ स्थापित किया है। इनका तो यहाँ तक कहना है कि संसार का कोई भी ज्ञान-विज्ञान गणित शास्त्रके परिज्ञानके बिना अधूरा है। धर्मशास्त्रको परिभाषाएँ, द्रव्य और गुणोंकी व्यवस्थाएँ एवं विश्वके रहस्यको प्रस्फुटित करनेवाले भौगोलिक सिद्धान्त गणित सम्बन्धी तों पर प्रतिष्ठित हैं। क्योंकि अनेक वस्तुएं जिन्हें हम आँखोंसे नहीं देख पाते हैं, वे तर्कके द्वारा ही सिद्ध की जा सकती है। पर यह सत्य है कि गणितके क्षेत्रमें तर्कका प्रयोग करना दुष्कर है । इसके लिए प्रवीणता और क्षमता दोनों ही शक्तियोंकी आवश्यकता होती है। तर्कके दो भेद हैआगमन और निगमन । जब दो वक्तव्य एक दूसरेसे इतना घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हों कि पहलेके सत्य होनेपर दूसरेका सत्य होना आश्रित हो तो इसे निगमन प्रणालीका तर्क कहा जाता है। जैसे क-२, ख = ५, तो अनुमान द्वारा क + ख - (५+२) =७, निगमन शैलीके तर्क द्वारा अनुमानको उलट देने पर हम इस सत्यको भी पाते हैं कि क = ३ और ख = ४; क +ख -(४+३) =७ । निगमन शैली द्वारा परिणाम निकाला गया-क-ख तथा ख = ग क - ग । यहाँ क, ख और ग का कुछ भी मान रखा जाय पर परिणामोंमें किसी भी प्रकारका अन्तर नहीं होगा। निगमन शैलीमें किसी भी अनुमानका आधार उसके निगमनसे अधिक व्यापक होता है; निगमनकी व्यापकता आधारकी व्यापकताके बराबर हो सकती है, पर उससे अधिक कभी नहीं होगी। पर आगमन शैली में आगमन अपने आधारसे सर्वदा अधिक व्यापक होता है । आगमन प्रणालीके तर्ककी परिभाषा करते हुए कहा गया है कि कई विशिष्ट स्थितियोंके आधारपर यदि हम किसी संभव वक्तव्य पर पहुंचते हैं तो उसे आगमन शैलीका तर्क कहा जाता है। इस प्रणालीमें सामान्यसे विशेषको प्राप्त किया जाता है तथा निगमनमें विशेषके कथन द्वारा सामान्यको प्राप्त किया जाता है । उपर्युक्त दोनों ही तर्क शैलियां गणित सूत्रोंकी उपपत्तिको अवगत करनेके लिए आवश्यक हैं। इनके प्रयोगके बिना उपपत्ति (वासना) निकाली नहीं जा सकती है । अतः तर्ककी शैली परिभाषाओंका संक्षेपमें उल्लेख कर देना आवश्यक है। यों तो गणित शास्त्रमें वासनाका मूल बुद्धि है । इसीके उपयोग द्वारा सूत्रोंकी उपपत्तियां निष्पन्न की जाती है। प्रस्तुत निबन्धमें श्रेणी व्यवहारके दस सूत्रोंको उपपत्ति दी जा रही है। इस गणितमें प्रथम स्थानमें जो प्रमाण होता है, उसे आदि, मुख, वदन या प्रभव कहते हैं। अनेक स्थानोंमें समान रूपसे होनेवाली वृद्धि अथवा हानिके प्रमाणको चय या उत्तर तथा जिन स्थानोंमें समानरूपसे वृद्धि या हानि हुआ करती है, उन्हें गच्छ या पद कहते हैं ।
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy