SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 408
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६३ ज्योतिष एवं गणित १' = १, २ = ८, ३३ = २७, ४ = ६४, ५७ - १२५, ६३ - २१६,............ ७. अघनधारा इस धाराका संख्या समूह अघनात्मक होता है । सर्वधाराकी संख्याओं में से धनधाराकी संख्याओंके घटाने पर अघनधाराकी संख्याएं आती हैं । यथा २, ३, ४, ५, ६, ७, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६, १७, १८, १९, २०, २१, २२, २३, २४, २५, २६, २८, ६३........" सर्वधारा- न३ = नअ. ८. कृतिमातका या वर्गमातका ___१, २, ३ आदि संख्याओंकी गणना न पर्यन्त की गयी है । इसका अर्थ यह है कि इसमें कृतिके वर्गमूलके तुल्य संख्याएँ होती हैं । यथा १, २, ३, ५..........."/न२ =न । ९. अकृतिमातका या अवर्गमातका इस धाराकी संख्याओंका समूह, इस प्रकारका है, जिसका वर्गमूल करणीगत होता है । यथा मू + १, मू + ३, /मू + २, मू + ५, मू + न = १०. धनमातका १, २ से लेकर अन्तिम घन संख्याके घनमूल तक इस धाराकी संख्याओंका विस्तार पाया जाता है । इस धारामें उन सभी संख्याओंका सम्बन्ध पाया जाता है, जिनका धनमूल निःशेष रूपमें निकलता है । यथा १,२ "न ११. अघनमातका इस धारामें ऐसी संख्याएँ परिगणित हैं, जिनका धनमूल करणीगत होता है। यथा ३/मू +१ ३ मू+२ ३ मू+३ .............च १२. द्वि. पवर्गधार
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy