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________________ ज्योतिष एवं गणित ( स उ + १) (ई) जघन्य-युक्त - असंख्यात = ( स उ + १ ) ( उ ) मध्यम - युक्त असंख्यात - ( स उ + १) ( स उ + १) < अयु उ (ऊ) उत्कृष्ट युक्त असंख्यात = अ यु उ ऊ ऊ ज - १ (क) जघन्य- असंख्याता संख्यात - ( अ यु ज ) ' (ख) मध्यम - असंख्याता संख्यात - ( अ यु ज ) <अ स उ (ग) उत्कृष्ट - असंख्यातासंख्यात = अ प ज १ धवलाटीकामें अनन्तके निम्नलिखित भेद वर्णित हैं । (च) नामानन्त - वस्तुके यथार्थतः अनन्त होने या न होनेका विचार किये बिना ही उसका बहुत्व प्रकट करने के लिए अनन्तका प्रयोग करना नामानस्त है । (छ) स्थापनानन्त - यथार्थतः अनन्त नहीं, किन्तु किसी संख्यामें आरोपित अनन्त । (ज) द्रव्यानन्त -- तत्काल उपयोग न आते हुए सानकी अपेक्षा अनन्त । (झ) गणनानन्त—संख्यात्मक अनन्त । (ञ) अप्रदेशिकानन्त - परीमाणहीन अनन्त । (ट) एकानन्त - एक दिशात्मक अनन्त । ३६१ (ठ) विस्तारानन्त - द्विविस्तारात्मक:--प्रतरात्मक अनन्ताकाश । (ङ) उभयानन्त - द्विदिशात्मक अनन्त – एक सीधी रेखा जो दोनों दिशाओं में अनन्त तक जाती है । (ढ) सर्वानन्त - आकाशात्मक अनन्त । (ण) भावानन्त - सानकी अपेक्षा अनन्त । । अनन्तके सामान्यतया (१) परीतानन्त ( २ ) युक्तानन्त और (३) अनन्तानन्त ये तीन भेद माने गये हैं । इन तीनोंके जधन्य, मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे तीन तीन भेद होनेसे कुल नौ भेद हो जाते हैं । और त्रिलोक सारमें उक्त ३ +९+९= २१ भेद वर्णित हैं । संख्यासे उत्कृष्ट संख्यातकी प्राप्ति होनेपर एक अधिक जोड़नेसे जघन्य परीत असंख्यातका मान आता है, किन्तु यह असंख्यात उपचार रूपसे ही माना जाता है । वास्तविक असंख्यात असंख्यात संज्ञाधारी धर्म द्रव्यादि राशियोंके जोड़ने पर ही आता है । इसी प्रकार उत्कृष्ट असंख्यात - असंख्यात में एक जोड़नेपर जघन्य परीत अनन्ताका मान आता है । अवधि = ज्ञानकी विषय सीमासे बाहर रहनेके कारण ही इसे औपचारिक अनन्त कहा जाता है । वास्तविक अनन्त केवल ज्ञानका विषय होता 1 संख्याओंका यह वर्गीकरण लोकोत्तर या आलौकिक गणितका ही विषय है । आशय यह है कि जैन लेखकोंने गणनीय संख्याओंको संख्यात, गणनातीतोंको असंख्यात एवं अचिन्त्य बड़ी संख्याओंको अनन्त कहा है। १. जीवाजीव मिस्सदव्यस्त कारणणिरवेक्खा सम्णा अनंता - धवला ३ जिल्द दर. ११ २. जं तं द्ववणवुतं णाम तं कद्वकम्मेसु 'धवला जिल्द ३, पृ० ११-१२ । ३. जंतं दग्वाणं संवही, पृ० १२ । ४६
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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