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________________ [ ११ ] इतिहासके कुछ नये पृष्ठ भी खोले हैं जिनमें "प्राचीन जैन-सिक्कोंका अध्ययन" नामक निबन्ध विशेष महत्त्वपूर्ण है। उनके अनुसार सिक्कों पर उत्कीर्ण प्रतीकोंके आधार पर जैन धर्मानुयायी अनेक उपेक्षित प्राचीन जैन सम्राटोंके नाम एवं अनेक कार्य कलापों पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। विद्वान् लेखकने संगीतके प्रकरणमें उसके सात प्रमुख स्वतन्त्र ग्रन्थोंका उल्लेख किया है, जिनमेंसे संगीत समयसारका प्रकाशन हो चुका है। इसमें सन्देह नहीं कि हिन्दीके जैन कवियोंने अधिकसे अधिक राग-रागनियोंमें गीत-पदोंकी रचना की है। उनका उल्लेख यथास्थान किया गया है । शोध एवं अनुसन्धान करने वालोंके लिए यह प्रकरण निश्चय ही पथ निर्देशकका कार्य करेगा। ___ इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थमें संग्रहीत शोध निबन्धोंमें अनेक मौलिक, नवीन, ऐतिहासिक एवं शास्त्रीय तथ्योंपर विश्लेषणात्मक प्रकाश डाला गया है। आशा है प्राच्य विद्या विशारदोंकी प्रगल्भ परम्परा इनका अध्ययन अनुशीलन कर श्रमणसंस्कृति एवं ऐतिहासिक परम्पराको समुन्नत करनेका यथोचित अध्यवसाय करेगी। अन्तमें, हम विद्वत्परिषद्के प्रति अपना आभार व्यक्त करते हैं , जिसने इस बृहद् काय ग्रन्थके शीघ्र प्रकाशनमें विशेष अभिरुचि प्रदर्शित की । इस प्रसंगमें उसके अध्यक्ष श्रद्धेय डॉ० (पं) पन्नालालजी सागर,एवं प्रधानमन्त्री श्री प्रो० डॉ० हरीन्द्र भूषणजी, विक्रम विश्व विश्व विद्यालय, उज्जैनने उसके प्रकाशन-कार्यमें जो उत्साह दिखलाया वह निरन्तर सुखद बना रहेगा एवं अविस्मरणीय भी । विद्वत्परिषद् के प्रकाशन मन्त्री डॉ० फूलचन्द्रजी प्रेमीने ग्रन्थ मुद्रण कार्यको तीव्रगति देनेके लिए तो अथक प्रयत्न किया ही, उसके अन्तिम प्रूफ-संशोधनमें भी अथ से लेकर इति तक कठोर परिश्रम कर उन्होंने हमें उससे निश्चिन्त बनाए रखा। उनके इस युवकोचित, उत्साहपूर्ण सत्श्रमके लिए हम उन्हें हार्दिक धन्यवाद देते हैं । श्रद्धय गुरुवर पं० कैलाशचन्द्रजी सि० शास्त्री वाराणसी, श्री० पं० नाथूलालजी शास्त्री, इन्दौर एवं श्री प्रो० खुशालचन्द्रजी गोरावाला, वाराणसीकी, उनकी सद्भावनाओं एवं शुभाशीर्वादोंके प्रति हम पुनः अपना आभार व्यक्त करते हैं, जिनके सत्प्रयत्नोंके कारण ही मई १९७९ में प्रस्तुत ग्रन्थकी रूपरेखा तैयार हो सकी थी तथा जिनकी प्रेरणासे ही विद्वत्परिषद्ने उसके प्रकाशनकी स्वीकृति प्रदान की थी । इनके अतिरिक्त भी हम उन सभी विद्वानों एवं जिज्ञासु पाठकोंके प्रति भी अपना आभार व्यक्त करते हैं, जिन्होंने इसके प्रथम खण्डका अध्ययन किया तथा अपनी शुभ सम्मतियाँ एवं बधाई-पत्र प्रेषितकर हमें उत्साहित किया है । डॉ. राजाराम जैन (आरा, विहार) डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री, नीमच (म०प्र०) सम्पादक
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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