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________________ ज्योतिष एवं गणित ३३५ चाप-तुल्य मानी जाती है । इसलिये यह निर्विवाद सिद्ध है कि रूपव्यासमें V१० करणी परिधिका मान माना जाता है। अब इष्ट परिधिके लिये इष्ट व्याससे गुणा कर दें तो इष्ट परिधि आ जायेगी। परन्तु जब इष्ट व्यासको /१० से गुणा करेंगे तो व्यासका भी वर्ग हो जायेगा । क्योंकि 'वर्ग वर्गेण गुणयेत्' यह नियम है । इसलिये यह सिद्ध हुआ कि व्यासके वर्गको १० से गुणा करके वर्गमूल निकालें तो परिधि आयेगी। सूर्य सिद्धान्तमें भी इसी फलके अनुकूल नियम बनाया गया है-'व्यासवर्गतो दशगुणात्पदं भूपरिधिः" यह नियम है; परन्तु नवीन आचार्योंने इसका परिष्कार दूसरे रूपसे किया है । सुधाकर द्विवेदीजीका मत है कि "व्यासवर्गतोऽदशात्पदं भूपरिधिः" इस प्रकारका परिष्कार मानना चाहिए और व्याख्यामें भी इस प्रकारका परिवर्तन किया है कि "न दशेन्यदश किञ्चिन्न्यूना दशतैगुणात्मकं भूपरिधिः" इस प्रकार की व्याख्या करते हैं । परन्तु यह व्याख्या ठीक नहीं है । सिद्धान्ततत्त्वविवेकके अवलोकनसे मालूम होता है कि उसमें संभवतः आचार्यकृत नियमका ही अनुसरण किया गया है व्यासवर्गाद्दशगुणात्पदं भूपरिधिभवेत् । व्यासः स्यात् परिधेर्वर्गाद्दिगमत्ताच्च पदंत्विह।। इसकी उपपत्ति के लिए भी यह प्रमाण दिया हैरुद्राहतव्यासदलोत्थवृत्तासोत्क्रमज्यावशतः क्रमज्या। या तत्समोऽयं परिधिः सुसूक्ष्मो व्यासैकमानादशमूलरूपा ।। व्याख्या-रुद्राहतो यो व्यासस्तस्य दलेनोत्थं तस्मिन्, व्यासतुल्या या उत्क्रमज्या तद्वशतः क्रमज्याऽर्धज्या या तत्सम एवायं सूक्ष्मपरिधिः स्यात् । जैसे यहाँपर अ घ च वृत्तक्षेत्र लिया जिसका कि क्षेत्रदर्शन व्यास अ च है और परिधि अध च क तथा उत्क्रमज्या अ ग है अ '.. ११४ व्यास = अ च और अ ग = व्यास (उत्क्रमज्या) , यहाँ पर उत्क्रमज्या शब्दसे व्यास जानना चाहिए। .:. ग च-१०४ व्यास । अतः अ ग x ग च = क ग x ग घ (रे० ३ अध्याय ३४ के) यदि वृत्तमें दो पूर्ण ज्या संपात करती हों तो एकके दोनों खण्डोंका गुणनफल दूसरीके दोनों खण्डोंके गुणनफलके बराबर होता है। ऊपर क्षेत्रमें अ च केन्द्रग पूर्ण जीवा है और यह जोवा क घ अकेन्द्रग पूर्ण जीवापर लम्ब-रूप है तथा ग बिन्दुपर संपात भी करती है। ... क ग = ग घ (रे० ३ अ० ३ प्र०) तया अ च रेखाके न विन्दुपर सम और ग असम खण्ड हैं। या .:.ग च x अ ग + न ग = न च' (रे० २ अ० ५ प्र०) अथवा अ ग x ग च + न ग' = न करें।
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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