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________________ ज्योतिष एवं गणित ११७ ६-महादशा विचार ७-अन्तर्मुक्ति विचार लग्न-नवांशादिके विचारके पूर्व राशि और ग्रहों का स्वरूप, उनकी विभिन्न संज्ञाएँ एवं लग्नादि द्वादश भावोंके स्वरूप का परिज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है । अतएव जातकतत्व को अवगत करनेके लिए केन्द्र, पणफर, आपौक्लिम, त्रिकोण, उपचय, चतुरन, मारक एवं नेत्रत्रिक संज्ञाओं को समझना आवश्यक है। फलप्रतिपादनके लिए अथवा जातक सिद्धान्तों को मात करनेके लिए प्रारम्भिक बातों की जानकारी अपेक्षित है। जातक फलादेशके मूलभूत सिद्धान्त जिस भाव में जो राशि हो, उस राशिका स्वामी ही, उस भाव का स्वामी या भावेश कहलाता है। षष्ठ, अष्टम और द्वादश भावके स्वामी जिन भावों स्थानों में रहते है, अनिष्टकारक होते हैं। किसी भाव का स्वामी स्वगृही हो तो उस स्थान का फल अच्छा होता है । ग्यारहवें भाव में सभी फल शुभदायक होते हैं। किसी भाव का स्वामी पापग्रह हो और वह लग्नसे तृतीय स्थान में स्थित हो तो शुभ फल कारक होता है किन्तु जिस भाव का स्वामी शुभग्रह हो और वह तृतीय स्थान में स्थित हो तो मध्यम फल देता है। जिस भावमें शुभग्रह रहता है उस भावका फल उत्तम और जिसमें पाप ग्रह रहता है उस भावके फलका ह्रास होता है। १४.५।७।९।१० स्थानों में शुभग्रहोंका रहना शुभ है । जो भाव अपने स्वामी शुक्र, बुद्ध और गुरु द्वारा युक्त अथवा दृष्ट हों अथवा अन्य किसी ग्रहसे युक्त अथवा दृष्ट न हों तो वह शुभ फल देता है । जिग भावका भावेश शुभग्रहसे मुक्त अथवा दृष्ट हो अथवा जिस भावमें शुभग्रह स्थित हो या जिस भाव को शुभग्रह देखता हो उस भावका शुभफल होता है। जिस भावका स्वामी पाप ग्रहसे युक्त अथवा दृष्ट हो या पाप ग्रह स्थित हो तो उस भावके फलका ह्रास होता है। ___ भावाधिपति मूल त्रिकोण, स्वक्षेत्रगत मित्रगृही और उच्चका हो तो उस भावका फल शुभ होता है । किसी भावके फलविशेष को ज्ञात करने के लिए यह देखना आवश्यक है कि उस भावका भावेश किस भावमें स्थित है और किस भावके भावेशका किस भावमें स्थित रहनेसे क्या फल होता है । सूर्य, मंगल, शनि और राहु, क्रमशः अधिक अधिक पापग्रह है। ये ग्रह अपनी पापग्रहों की राशियोंपर रहनेसे विशेष अनिष्टकर एवं शुभग्रह और मित्रग्रहों की राशियोंमें रहनेसे अल्प-अनिष्टकारक तथा अपनी उच्चराशियोंमें स्थित रहनेसे सामान्यतः शुभफलदायक होते हैं। चन्द्रमा, बुध, शुक्र, केतु और गुरु ये क्रमशः अधिक अधिक शुभग्रह माने गये है। ये शुभग्रहों की राशियों में रहनेसे अधिक शुभ तथा पापग्रहों की राशियों में रहनेसे अल्पशुभफल को सूचना देते हैं । केतु फल विचार करनेमें प्रायः पापग्रह माना गया है। अष्टम और द्वादश भावों में सभी ग्रह अनिष्टकारक होते है। गुरु, षष्ठ भावमें शत्रुनाशक, शनि, अष्टमभावमें दीर्घायुकारक एवं मंगल दशम स्थानमें उत्तम भाग्यका सूचक होता है। राहु, केतु और अष्टमेश जिस भावमें रहते है उस भाव को बिगाड़ते हैं। गुरु अकेला, द्वितीय, पंचम और सप्तम भावमें स्थित हो तो धन, पुत्र बोर स्त्री के लिए सर्वद्या बनिष्टकारक होता है। जिस भाव का बो गृह कारक
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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