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________________ ३१५ ज्योतिष एवं गणित शारीरिक दृष्टिसे हृदय, रक्त-संचालन, नेत्र, रक्तवाहिका छोटी छोटी नसे, दांत, कान आदि अंगोंका प्रतिनिधि है । अन्तःकरणका प्रतीक शनि है। यह बाह्य चेतना और आन्तरिक चेतनाको मिलानेमें पुलका काम करता है। प्रत्येक नवजीवनमें आन्तरिक व्यक्तित्वसे जो कुछ प्राप्त होता है और जो मनुष्यके व्यक्तिगत जीवनके अनुभवोंसे मिलता है उससे यह मनुष्यको वृद्धिंगत करता है। यह प्रधान रूपसे अहंभावनाका प्रतीक होता हुआ भी व्यक्तिगत जीवनके विचार इच्छा और कार्योंमें सन्तुलन करता है। अनात्मिक दृष्टिसे कृषक, हलवाहक, पत्रवाहक, चरवाहा, कुम्हार, माली, मठाधीश, कृपण, पुलिस अफसर, उपवास करनेवाले साधु-संन्यासी आदि व्यक्ति तथा पहाड़ी स्थान, चट्टानी-प्रदेश, बंज़रभूमि, गुफा, प्राचीन ध्वस्त स्थान, श्मशान घाट, कब्रस्थान एवं चौरस मैदान आदिका प्रतिनिधि है। __ आत्मिक दृष्टिसे तत्त्वज्ञान, विचारस्वातन्त्र्य, अध्ययन, मनन-चिन्तन, कर्तव्य-बुद्धि, आत्म-संयम, धैर्य, दृढ़ता, गम्भीरता, निर्मलता, सतर्कता एवं विचारशीलताका प्रतीक है। शारीरिक दृष्टिसे अस्थि-समूह, बड़ी आंतें, मांस-पेशियां, घुटनेसे नीचे के अंग आदि पर इसका प्रभाव पड़ता है । इस प्रकार जातक पद्धतिमें सौर जगत्के उक्त सात ग्रहोंको मानव-जीवनके विभिन्न अंगोंका प्रतीक माना गया है। इन ग्रहोंमें सूर्य और चन्द्रको प्रधानता है। ये दोनों मन और शरीरके विकास पर प्रभाव डालते हैं। सूर्य सिद्धान्त और वराहमिहिरके सिद्धान्तोंसे ज्ञात होता है कि शरीर कक्षा-वृत्तके द्वादश भाग-मस्तक, मुख, वक्ष-स्थल, हृदय, उदर, कटि, वस्ति, लिंग, जंघा, घुटना, पिंडली और पैर क्रमशः मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ और मीन संज्ञक हैं। इन १२ राशियोंमें भ्रमण करनेवाले ग्रहोंमें आत्मा रवि, मन चन्द्रमा, धैर्य मंगल, वाणी बुध, विवेक गुरु, वीर्य शुक्र और संवेदन शनि है। इस प्रकार वराहमिहिरके अनुसार सप्त ग्रह और द्वादश राशियोंकी स्थिति देहधारी प्राणियोंके शरीरके भीतर ही पायी जाती है । शरीर स्थित इस सौर-चक्रका भ्रमण आकाश स्थित सौर मण्डल के समान ही होता है । अतएव व्यक्त और जगत्के ग्रहोंकी गति, स्थिति, क्रिया आदिके अनुसार अव्यक्त शरीर स्थित सौर जगत्के ग्रहों की गति, स्थिति, क्रिया आदिके अनुसार अव्यक्त शरीर स्थित सौर जगत्के ग्रहोंकी गति, स्थिति क्रिया आदिको अभिव्यक्त करते हैं । बताया है एते ग्रहा बलिष्ठाः प्रसूतिकाले नृणां स्वमूत्तिसमम् । कुयुर्देहं नियतं बहवश्च समागता मिश्रम् ॥ कालपुरुष और जातक जातक शास्त्रमें काल-समयको पुरुष या ब्रह्म माना गया है और ग्रह रश्मियों वश इस पुरुषके उत्तम, मध्यम, उदासीन एवं अधम ये चार अंग विभाग किये हैं। त्रिगुणात्मक प्रकृतिके द्वारा निर्मित समस्त जगत् सत्त्व, रजस् और तमोमय है। जिन ग्रहोंमें सत्त्व गुण
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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