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________________ ३०६ भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदान अतः एक युगमें अयन इस प्रकारके होंगे सूर्य प्रज्ञप्ति के अनुसार अयनवृत्ति तिथि अयन मास और पक्ष नक्षत्र दक्षिणायन श्रावणकृष्ण प्रतिपत् उत्तरायण माघ कृष्ण | सप्तमी दक्षिणायन श्रावणकृष्ण त्रयोदशी उत्तरायण माघ शुक्ल चतुर्थी दक्षिणायन श्रावण शु० दशमी उत्तरायण | माघ कृष्ण प्रतिपत् पुष्य दक्षिणायन श्रावणकृष्ण सप्तमी रेवती उत्तरायण माघ कृष्ण त्रयोदशी मूल दक्षिणायन श्रावण शु० नवमी पूर्वाफा० उत्तरायण माघकृष्ण त्रयोदशी कृत्तिका वेदाङ्गज्योतिष के अनुसार अयनवृत्ति मास और पक्ष तिथि नक्षत्र अयन अभिजित् उत्तरायण माघ शुक्ल प्रतिपत् धनिष्ठा हस्त | दक्षिणायन | श्रावण शुक्ल सप्तमी चित्रा मृगशिर उत्तरायण माघ शुक्ल त्रयोदशी आर्द्रा शतभिप दक्षिणायन श्रावण शुक्ल चतुर्थी विशाखा उत्तरायण माघ कृष्ण दशमी दक्षिणायन | श्रावण शुक्ल प्रतिपत् उत्तरायण माघ शुक्ल सप्तमी दक्षिणायन | श्रावण शुक्ल त्रयोदशी पूर्वाषाढ़ा उत्तरायण माघ कृष्ण चतुर्थी उत्तराफाल्गुनी दक्षिणायन श्रावण कृष्ण दशमी रोहिणी पूर्वाभाद्रपद् अनुराधा आश्लेषा अश्विनी इस चक्र से भी प्रतीत होता है कि जैन शास्त्रोंकी अयनवृत्ति हिन्दू ज्योतिष ग्रन्थोंसे नहीं मिलती है । क्योंकि हिन्दू ज्योतिष ग्रन्थों में सबसे प्राचीन ज्योतिष ग्रन्थ 'वेदाङ्ग ज्योतिष' है और इसकी अवनप्रवृत्ति जैन प्रक्रिया से भिन्न है, अतएव यह मानना पड़ेगा कि जैन ज्योतिष स्वतन्त्र है । परन्तु बादमें विकसित नहीं हुआ है और इसीसे यह पिछड़ गया है । पर्व और तिथियों में नक्षत्र लानेका जैन ज्योतिषका प्रकार यह है : नक्षत्राणां परावर्त चन्द्रिसम्बन्धिनामथ | ब्रूमहे प्रत्यहोरात्रं सूर्य सम्बन्धिनामपि ॥ भवत्यभिजिदारम्भो युगस्य प्रथमक्षणे । अस्य पूर्वोक्ता शीतांशु भोगकालादनन्तरम् ॥ श्रावणं स्यात्तस्य चेन्दुभोगकालनतिक्रमे । धनिष्ठेत्येवमादीनि ज्ञेयानि निखिलान्यपि ॥ अथेन्दुना भुज्यमानमहोरात्रे विवक्षते । इष्टे तिथौ च नक्षत्रं ज्ञातुं करणमुच्यते ॥ इत्यादि काल लोक प्रकाश पृ० ११४ । अर्थात् युगादिमें अभिजित् नक्षत्र होता है । चन्द्रमा अभिजित्को भोग कर श्रवणसे शुरू होता है और अग्रिम प्रतिपत्को मघा नक्षत्र पर आता है। इस प्रकार से सम्पूर्ण पर्व और तिथियों में नक्षत्र लाने चाहिए। इसके गणितका नियम इस प्रकार है - पर्वकी संख्याको १५ से गुणाकर गत तिथि संख्याको जोड़कर जो हो उसमें २ घटा कर शेष में ८२ का भाग देने से जो शेष रहे उसमें २७ का भाग देनेपर जो शेष आवे, उतनी ही संख्या वाला नक्षत्र होता है, परन्तु नक्षत्र गणना कृत्तिकासे लेनी चाहिये ।
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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