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________________ २७६ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान श्रेणीव्यवहार, क्षेत्रव्यवहार, खातव्यवहार, चित्रिव्यवहार, काष्ठकव्यवहार, राशिव्यवहार एवं छायाव्यवहार आदि गणितोंका निरूपण किया है । ज्योतिर्ज्ञानविधि प्रारम्भिक ज्योतिषका ग्रन्थ है। इसमें व्यवहारोपयोगी महूर्त भी दिये गये हैं । आरम्भमें संवत्सरोंके नाम, नक्षत्र, नाम, योगकरण नाम तथा उनके शुभाशुभत्व दिये गये हैं। इसमें मासशेष, मासाधिपतिशेष, दिनशेष एवं दिनाधिपति शेष आदि गणितानयनकी अद्भुत प्रक्रियाएं बतायी गयी हैं । जातकतिलक कन्नड़-भाषामें लिखित होरा या जातकशास्त्र सम्बन्धी रचना है। इस ग्रंथमें लग्न, ग्रह, ग्रहयोग एवं जन्मकुण्डली सम्बन्धी फलादेशका निरूपण किया गया है । दक्षिण भारतमें इस ग्रंथका अधिक प्रचार है । चन्द्रोन्मीलन प्रश्न भी एक महत्त्वपूर्ण प्रश्नशास्त्रकी रचना है । इस ग्रंथके कर्ताके सम्बन्धमें भी कुछ ज्ञात नहीं है । ग्रंथको देखनेसे यह अवगत अवश्य होत. है कि इस प्रश्न प्रणालीका प्रचार खूब था। प्रश्नकर्ताके प्रश्नवर्णोंका संयुक्त, असंयुक्त, अभिहत, अनभिहत, अभिघातित, अभिधूमित, आलिंगित और दग्ध इन संज्ञाओंमें विभाजन कर प्रश्नोंका उत्तरमें चन्द्रोन्मीलनका खण्डन किया गया है। "प्रोक्तं चन्द्रोन्मीलनं शुक्लवस्त्रस्तच्चाशुद्धम्" इससे ज्ञात होता है कि यह प्रणाली लोकप्रिय थी। चन्द्रोन्मीलन नामका जो ग्रन्थ उपलब्ध है, वह साधारण है। उत्तरमध्यमकालमें फलिय ज्योतिषका बहुत विकास हुआ । मुहूर्तजातक, संहिता, प्रश्न सामुद्रिकशास्त्र प्रभृति विषयोंकी अनेक महत्त्वपूर्ण रचनाएँ लिखी गयी हैं । इस युगमें सर्वप्रथम और प्रसिद्ध ज्योतिषी गुरुदेव है। दुर्गदेवके नामसे यों तो अनेक रचनाएं मिलती हैं, पर दो रचनाएँ प्रमुख हैं-रिट्ठसमुच्चय और अर्धकाण्ड । दुर्गदेवका समय सन् १०३२ माना गया है । रिठ्ठसमुच्चयकी रचना अपने गुरु संयमदेवके वचनानुसारकी है । ग्रन्थमें एक स्थानपर संयमदेवके गुरू संयमसेन और उनके गुरू माधवचन्द्र बताए गए हैं। रिट्ठसमुच्चय शौरसेनी प्राकृतमे २६१ गाथाओंमें रचा गया है । इसमें शकुन और शुभाशुभ निमित्तोंका संकलन किया गया है । लेखकने रिष्टोंके पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ नामक तीन भेद किये हैं। प्रथम श्रेणीमें अंगुलियोंका टूटना, नेत्रज्योतिकी हीनता, रसज्ञानकी न्यूनता, नेत्रोंसे लगातार जलप्रवाह एवं जिह्वा न देख सकना आदिको परिगणित किया है। द्वितीय श्रेणीमें सूर्य और चन्द्रमाका अनेकों रूपोंमें दर्शन, प्रज्वलित दीपकको शीतल अनुभव करना, चन्द्रमाको त्रिभंगी रूपमें देखना, चन्द्रलांछनका दर्शन न होना इत्यादिको ग्रहण किया है । तृतीयमें निजछाया, परच्छाया तथा छायापुरुषका वर्णन है। प्रश्नाक्षर, शकुन और स्वपन आदिका भी विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। ___ अर्धकाण्डमें तेजी-मन्दीका ग्रह योगके अनुसार विचार किया गया है । यह ग्रन्थ भी १४९ प्राकृत गाथाओंमें लिखा गया है। मल्लिसेन–संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओंके प्रकाण्ड विद्वान् थे। इनके पिताका नाम जिनसेन सूरि था, ये दक्षिण भारतके धारवाड जिलेके अन्तर्गत गदगतालुका नामक स्थानके
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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