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________________ २४६ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान चतुर्थ अधिकरणके प्रारम्भमें प्रबन्धकी व्याख्या दी है। चार धातु और छ अंगोंसे जिसका नियमन होता है, वह प्रबन्ध है । प्रबन्ध गीतोंकी व्याख्याके पश्चात् पाद, बन्ध, स्वरपद, चित्र, तेन, मिश्र इत्यादि करणोंको व्याख्या एकादश ध्रुवोंके अनन्तर उनका उपयोग करनेका तरीका बतलानेके पश्चात् अधिकरण समाप्त किया है । पञ्चम अधिकरण अनवद्यादि चार प्रकार के वाद्योंके भेद बतलाकर तत्सम्बन्धी परिभाषाएँ बतलायी है । पाठ वाद्यके १२ प्रकार बतलाकर उनके अक्षरोंको किस प्रकार बजाना चाहिये यह दिखलाया गया है । षष्ठ अधिकरणमें नृत्य और अभिनयका वर्णन है । अङ्गविक्षेपके अनेक प्रकार बतलाये गये हैं। सप्तम अधिकरणमें तालका उद्देश्य, उसका लक्षण और उसके नाम दिये हैं । संगीतमें तालका महत्त्व बतलाते हुए लिखा है तालमूलानि गेयानि ताले सर्व प्रतिष्ठितम् । तालहीनानि गेयानि मंत्रहीना यथाहुतिः ।। अष्टम अधिकरणका नाम गीताधिकरण है । गीतका स्वरूप, गानेकी विधि, गीतके गुणदोष, सभामें बैठनेको विधि, गाने के नियम आदिका वर्णन है । उत्तम, मध्यम और निकृष्ट, नर्तक, वादक और गायकको परिभाषाएँ दी गयी हैं । ___ नवम अधिकरणमें प्रस्तार, नष्ट, उद्दिष्ट आदिका वर्णन किया गया है। इस प्रकार संगीत समयसार देशी संगीतका महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें देशी रागोंके नाम और लक्षण संगीत रत्नाकरकी अपेक्षा भिन्न रूपमें दिये गये हैं। संगीत रत्नाकरके अनुकरणपर लिखा जानेपर भी इस ग्रन्थकी अपनी विशेषता है । राग विबोधकार श्री सोमनाथने अपने रागविबोधके तृतीय विवेकमें प्रबन्धके सम्बन्धमें लिखते हुए-“तथा च पार्श्वदेवः" लिखकर बताया है-"चतुभिर्धातुभिः षड्भिश्चाङ्गैर्यस्मात्प्रबध्येत, तस्मात्प्रबन्धः कथितो गीतलक्षणकोविदः ।" इस प्रकार रागविबोधकारने पार्श्वदेवके वचनोंको उद्धृत किया है। संगीतोपनिषद् श्वेताम्बराचार्य राजशेखर सूरिके शिष्य सुधाकलशने विक्रम संवत् १३८० में संगीतोपनिषद्की रचना की है। इसमें छह अध्याय हैं । प्रथम अध्यायमें गीत प्रकाशन, द्वितीयमें प्रस्तारादिसोपाश्रय तालप्रकाशन, तृतीयमें गुण, स्वर, रागादि प्रकाशन, चतुर्थमें चतुर्विध वाद्य प्रकाशन, पञ्चममें नृत्याङ्ग, उपाङ्ग, प्रत्यक्ष प्रकाशन और षष्ठमें नृत्य पद्धति प्रकाशन है । इन्हीं आचार्यने वि० सं० १४०६ में संगीतोपनिषद्सारोद्धारकी रचना की है । इस ग्रन्थमें ६१० श्लोक हैं और संगीतोपनिषद्का ही विषय वर्णित है। यह ग्रंथ गायकवाड़ ओरियन्टल सिरीज बड़ोदासे प्रकाशित हो चुका है । संगीतमण्डन मालवा माण्डवगढ़के सुलतान आलम शाहके मन्त्री मण्डनने इस ग्रन्थकी रचना की है । रचना काल वि० सं० १४९० है। मण्डन श्रीमालवंशी सोनगरा गोत्रके थे। ये जालोरके
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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