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________________ भक्ति, संगीत एवं ललित कलाएँ २३३ औड़व, साधारण और काकलीके भेदसे चार-चार स्वर होते हैं। इस तरह इनके ५६ स्वर हो जाते हैं । जिसकी उत्पत्ति छह स्वरों से होती है. उसे षाड़व और जिसकी पांच स्वरोंसे उत्पत्ति होती है, उसे औड़व कहते हैं। तानोंके ८४ प्रकार बतलाये हैं इनमें पांच स्वरोंसे उत्पन्न होनेवाली ३५ और ६ स्वरोंसे उत्पन्न होनेवाली ४९ प्रकारको तानें होती हैं । ग्राम जातियोंका वर्णन करते हुए षड्ज ग्रामसे सम्बन्ध रखनेवाली (१) षाड्जी (२) आर्षभी (३) धैवती (४) निषादजा (५) सुषड्जा (६) उदीच्यवा (७) षड्जकैशिकी और (८) षड्जमध्यमा ये आठ जातियां हैं एवं नीचे लिखी एकादश जातियाँ मध्यमग्रामके आश्रित हैं-(१) गान्धारी (२) मध्यमा (३) गान्धारोदीच्यवा (४) पञ्चमी (५) रक्तगान्धारी (६) रक्तपञ्चमी (७) मध्यमोदीच्यवा (८) नन्दयन्ती (९) कर्मारवी (१०) आन्ध्री (११) कैशिकी। दोनों ग्रामोंकी मिलाकर उन्नीस जातियाँ होती हैं । इन जातियों में मध्यमा, षड्जमध्यमा और पञ्चमी ये तीनों जातियां साधारण स्वरगत हैं । इन जातियोंके शुद्ध और विकृत दो भेद होते हैं। जो परस्पर मिलकर नहीं हुई हैं तथा पृथक्-पृथक लक्षणोंसे युक्त हैं वे शुद्ध कहलाती हैं । सो सामान्य लक्षणोंसे युक्त हैं, वे विकृत कहलाती हैं । विकृत जातियाँ दोनों ग्रामोंकी जातियोंसे मिलकर बनती हैं तथा दोनोंके स्वरोंसे आप्लुत रहती हैं। मध्यमोदीच्यवा, षड्जकैशिकी, कर्मारवी और गान्धार पञ्चमी ये चार जातियां सात स्वर वाली हैं । षड्जा, आन्ध्री, नन्दयन्ती और गान्धारोदीच्यवा ये चार जातियां छह स्वर वाली हैं और शेष दश जातियाँ पाँच स्वर वाली हैं। नैषादी, आर्षभी, धैवती, षड्जमध्यमा और षड्जोदीच्यवती ये पांच जातियाँ षड्ज ग्रामके आश्रित हैं और गान्धारी, रक्ता गान्धरी, मध्यमा, पञ्चमी तथा कैशिको ये पाँच मध्यम ग्रामके आश्रित हैं । षड्ज ग्राम में सात स्वर वाली षड्जकैशिकी जाति होती है और गानके योगसे ६ स्वर वाली भी होती है । मध्यम ग्राममें सात स्वर वाली कर्मारवी, गान्धार पञ्चमी और मध्यमोदीच्यवा होती है और ६ स्वर वाली गान्धारोदीच्यवा, आन्ध्री एवं नन्दयन्ती जातियां होती हैं । जहाँ छह स्वर होते हैं, वहाँ षड्ज, मध्यम स्वर उसका सप्तांश नहीं होता है और संवादीका लोप हो जाने से वहाँ गान्धार स्वर विशेषताको प्राप्त नहीं होता है। इस प्रकार स्वरों की जातियोंका कथन विस्तार पूर्वक आया है। तार, मन्द्र, न्यास, उपन्यास, ग्रह, अंश, अल्पत्व, बहुत्व, षाड़व और औड़वित्व ये दश जातियाँ बतलायी गयी हैं । राग जिसमें रहता है, राग जिससे प्रवृत्त होता है, जो मन्द्र अथवा तार मन्द्र रूप से अधिक उपलब्ध होता है, जो ग्रह, उपन्यास, विन्यास, संन्यास और न्यास रूप से अधिक उपलब्ध होता है, तथा जो अनुवृत्ति पायी जाती है, वह दश प्रकारका अंश कहलाता है । संचार, अंश, बलस्थान, दुर्बल, स्वरोंकी अल्पता और नानाप्रकारका अन्तरमार्गमें जातियोंको प्रकट करने वाले हैं । इस प्रकार जाति, अंश, ग्रह, न्यास आदिका विवेचन आया है। किस स्वरका कौन स्वर आरोही कौन न्यासी है कौन उपन्यासी है का विस्तार पूर्वक कथन आया है। इस प्रकार वसुदेवने गन्धर्व शास्त्रका विवेचन प्रस्तुत किया है। तुम्बुरु, नारद, गन्धर्व अथवा किन्नरके रूपमें ऐसा वोणा वादन प्रस्तुत किया, जिसे सुनकर सभी आश्चर्य चकित रह गये और गन्धर्वसेनाने अपना पराजय स्वीकार किया।
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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