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________________ २२८ भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान भौंहवाली देवियाँ भोठों के अग्रभागसे वीणा दबाकर बजाती हुई ऐसी शोभित हो रही थीं, मानों फूंककर कामदेव रूपी अग्निको प्रज्वलित कर रही हैं । यह एक बड़े आश्चर्य की बात थी कि वीणा बजाने वाली कितनी ही देवियाँ अपने हस्त रूपी पल्लवों से वीणाकी लकड़ीको स्वच्छ करती हुई हाथोंकी चञ्चलता, सुन्दरता और बजानेकी कुशलतासे दर्शकों का मन अपहरण कर रही थीं। कितनी ही देवियाँ संगीतके समय गम्भीर शब्द करने वाली बीणाओंको हाथकी अँगुलियों बजाती हुई गा रही थीं। वे मुंहसे बाँसुरी और हाथसे वीणा बजाती हुई दर्शकवृन्दका अनुरञ्जन करती थीं। बजाने वाली देवियोके हाथके स्पर्शसे मृदंग गम्भीर शब्द कर रहे थे, जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो ऊँचे स्वरसे उन बजाने वाली देवियोंके कला-कौशलको ही प्रकट कर रहे हों। इस प्रकार मृदंग, पणव, शंख, तूर्य आदि बाद्यों द्वारा जनता एवं सभाका चित्त अनुरंजित किया करती थीं । त्रयोदश पर्व में ऋषभदेवके जन्मकल्याणकके अवसर पर देव-देवाङ्गना और नाभिराजके अन्तःपुरमें जो संगीत प्रस्तुत किया गया था उसके अध्ययनसे संगीत सम्बन्धी कई विशेषताएं प्रकट होती हैं । एक पद्यमें तालका महत्त्व बतलाते हुए लिखा है कि गन्धर्व देव जो मंगल गान प्रस्तुत कर रहे थे उसे मधुर और आनन्दप्रद बनाने के लिए मृदंग और दुन्दुभि बाद्योंके गम्भीर स्वर द्वारा तालकी वृद्धि की जा रही थी । यह संगीतका सामान्य सिद्धान्त है कि गायनके साथ तालका मेल रहनेसे गायन कई गुना आनन्दप्रद हो जाता है । इसी सिद्धान्तका अनुसरण कर जन्माभिषेक के अवसर पर प्रस्तुत किये गये नृत्यमें भी तालोंकी योजना की गयी है । देवाङ्गनाएँ तालके आधार पर ही फिरकी लेती थीं और लास्य नृत्य प्रस्तुत करती थीं और आचार्य जयसेनने लिखा है गन्धर्वारब्धसंगीतमृदङ्गा ध्वनिमूच्छिते । दुन्दुभिर्ध्वनि मन्द्रे श्रोत्रानन्दं प्रतन्वति ॥ मेरुरङ्गेऽप्सरोवृन्दे सलीलं परिनृत्यति । करणैरङ्गहारैश्च सलयेश्च परिक्रमैः ॥ आदिपुराण में वैयक्तिक गान विद्याके साथ संगतियोंका भी वर्णन आया है । १४ वें पर्व में ऋषभदेव के जन्माभिषेक के पश्चात् इन्द्रने नाटककी योजना की और इस योजना में संगीतकी संगतियाँ भी निर्दिष्ट की गयी हैं । इन्द्रने पुष्पाञ्जलि क्षेपणकर जब ताण्डव नृत्य आरम्भ किया तब देवांगनाएं उनका साथ देनेके लिए मधुर गान गाने लगीं। इस गानकी ध्वनिको प्रभावोत्पादक बनाने के लिए पुष्कर जातिके वीणा, मुरली आदि विभिन्न प्रकारके वाद्य बजने लगे । ये वाद्य संगीतके स्वरका ही साथ दे रहे थे और इन वाद्योंसे वे ही स्वर निःसृत हो रहे थे । इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि नृत्य, गीत और वाद्य इन तीनोंकी संगति एक साथ प्रस्तुत की जा रही थी और ये तीनों एक ही प्रकारके स्वर और रागकी वृद्धि कर रहे थे । इससे स्पष्ट है कि आचार्य जिनसेनने संगतियोंको महत्त्व दिया है और वस्तुतः संगीत कलाका पूर्ण चमत्कार संगतियों द्वारा ही प्राप्त होता है । I १. आदिपुराण, त्रयोदश पर्व, पद्य १७७, १७९
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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