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________________ बौद्ध महायानमें भक्ति-सिद्धान्त बौद्ध महायानमें त्रिकायवाद सिद्धान्त आया है। इसी सिद्धान्तसे भक्तिका विकास हुआ है, पर निर्वाण प्राप्त करते समय बुद्धने अपने शिष्योंको उपदेश दिया-"आनन्द जिस धर्म और विनयका मैंने तुम्हें उपदेश दिया है, जिसे मैंने तुम्हें बताया है, वही मेरे बाद तुम्हारा शास्ता होगा।" एक अन्य घटना में आया है-वक्कील नामक भिक्षुक एक बार बहुत बीमार पड़ा। उसने भगवान् बुद्धके दर्शनोंकी इच्छा की । भगवान् बुद्धने जाकर उसकी इच्छाको पूर्ण किया और उपदेश दिया-"वक्कील मेरी इस गन्दी कायाको देखनेसे तुझे क्या लाभ होगा। जो धर्मको देखता है, वह मुझे देखता है, और जो मुझे देखता है, वह धर्मको देखता है । इन उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि भगवान् बुद्ध धर्मकायको बहुत महत्त्व देते थे । इस धर्मकायके सिद्धांतने महायान सम्प्रदायमें भक्तिभावका समावेश किया है । महायान भक्ति क्षेत्रमें बुद्धके धर्मकायको एक प्रकारसे उनका निर्गुण रूप बताया गया है और उनके लौकिक शरीरको अवतार व्यञ्जित किया गया है । उसके प्रति अनन्य श्रद्धाकी बातपर बल दिया गया है। यह अनन्तं श्रद्धा ही आगे चलकर भक्तिके रूपमें विकसित हुई। श्रद्धाके अतिरिक्त 'त्रिशरण सिद्धान्त'ने भी भक्तिभावनाके विकासपर बल दिया है । प्राचीन बौद्ध धर्ममें केवल कर्मवादको ही महत्त्व दिया गया था । उसमें किसी प्रकारके ईश्वरकी प्रतिष्ठा नहीं थी। महायान सम्प्रदायमें बुद्धको ईश्वरके रूपमें प्रतिष्ठित किया गया और उनके प्रति पूर्ण श्रद्धाभावना समर्पित की गयी। यही श्रद्धा भावना भक्ति भावनाका आधारस्तम्भ है । "सद्धर्मपुण्डरीक"3 में भगवान बुद्धको जगत्का संतारक कहा गया है । उनमें अद्वितीय करुणा और कृपाभावकी प्रतिष्ठा करके उनके व्यक्तित्वको भक्तवत्सल बनाया गया है। अवलोकितेश्वर बुद्धने कृष्णके सदृश ही प्रतिज्ञा की थी कि जितने दुःखी प्राणी हैं, उन सबका भार मैं अपने ऊपर लेता हूँ । इसी प्रकार और भी ऐसे बहुतसे उद्धरण मिलते हैं, जिनमें भक्तिकी प्राणभूत प्रवृत्ति प्रपत्तिकी झलक दिखलायी पड़ती है । 'सुखावती' सम्प्रदायमें बुद्ध देवाधिदेवके रूपमें प्रतिष्ठित किये गये हैं । असंख्य स्त्री-पुरुष कारुणिक पिता अमिताभकी शरण जाते रहे हैं । इसोको वे मुक्तिका मार्ग मानते थे । इससे स्पष्ट है कि महायानी भक्ति भावनामें ईश्वरवादी और अवतारवादी प्रवृत्तिके साथ-साथ वैष्णवोंके प्रपत्तिभावकी भी प्रतिष्ठा हो गयी । महायानी भक्तिकी एक महत्त्वपूर्ण विशेषता मन्त्र जप है । तिब्बत आदि देशोंमें मन्त्रजपको बहुत महत्त्व दिया गया है । मन्त्र जपके साथ-साथ प्रार्थना तत्त्वको भी महत्त्व प्राप्त है । होनेन्द्रके शिष्य शिनरेनका कथन है कि बुद्धकी हमें करुणा पूर्वक प्रार्थना करनी चाहिये । १. दीघनिकाय २।३।। २. Aspects of Mahoyava of Budhisen. Page 103-108 ३. सद्धर्मपुण्डरीक, २०११,
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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