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________________ प्रकाशकीय श्रमण संस्कृति को उसकी समग्रता में जानने समझने और जन-जन तक सम्प्रेषण के युगान्तर बोध के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को रेखांकित करती यह संस्था, प्राच्य श्रमण भारती, तीर्थंकर महावीर की देशना को गौरवमण्डित करने के महायज्ञ में अपने सम्पूर्ण जीवन को समिधा रूप अर्पित करने वाले, इस देश के साहित्यक एवं सांस्कृतिक इतिहास के एक अत्यन्त महत्वपूर्ण हस्ताक्षर स्व. प्रो० (डॉ.) नेमिचन्द्र शास्त्री के कतिपय महत्वपूर्ण शोध आलेखों के प्रकाशन की प्रस्तुति कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रही है। प्राच्य श्रमण भारती ने वैचारिक परिष्कार एवं श्रुत साधकों से संवाद को अपने चिन्तन फलक पर प्राथमिकता के स्तर पर प्रतिष्ठापित किया है ताकि आगम-ग्रन्थों में निबद्ध रहस्यों को सामान्य जनों तक बोधगम्य भाषा और शैली में सम्प्रेषित किया जा सके एवं शोध-मीमांसा तथा समीक्षा के नूतन सन्दर्भो को रेखांकित किया जा सके। श्रमण परम्परा के उदात्त चिन्तन की ऊर्जस्वी धारा का तत्वज्ञानमयी प्रवाह यदि निर्बाध गति से संचारित हो सका है तो उसका सम्पूर्ण श्रेय अपने प्रेरणा-स्तम्भ, आदर्श तपस्वी और महान विचारक, आचारनिष्ठ दिगम्बर साधक परमपूज्य उपाध्याय श्री 108 ज्ञानसागर जी महाराज को जाता है जिनके मौलिक चिन्तन का सार जीवन की आत्यातिक गहराइयों, अनुभूतियों एवं साधना की अनन्त ऊँचाइयों का संस्पर्श करता है तथा आगम-प्रामाण्य से उद्भूत हो मानवीय चिन्तन के सहज परिष्कार में सतत्/सदैव सन्नद्ध हो रहा है। वीतराग साधना-पथ के इस निरामय, निर्ग्रन्थ पथिक का रत्नत्रयों के उत्कर्ष से विकसित हुआ क्रान्तिदृष्टा जीवन, दर्शन, ज्ञान और आचार की एक ऐसी त्रिवेणी है जिसमें अवगाहन करने की अनुभूतियाँ शब्दातीत हैं। गुरुदेव का चिन्तन फलक देश, काल, सम्प्रदाय, जाति, धर्म-सबसे दूर प्राणिमात्र को समाहित करता है, ए युगबोध देता है, नैतिक जीवन जीने को अभिप्रेरित करता है और वैश्विकता के उदात्त चिन्तन को प्रशस्त करता है। मुनिराज जहाँ आत्म-शोधन के नित-नए प्रयोगों में सन्नद्ध हैं वहीं जिनवाणी के आराधकों से सहज-सार्थक संवाद को प्रतिपल सशक्त करने हेतु भी संकल्पित हैं और तत्वज्ञान की ऊर्जस्वी चिन्तन-धारा को अपनी करूणा, आत्मीयता और संवेदनशीलता की त्रिवेणी से अभिसिंचित कर भगवान महावीर की सत्वेषु मैत्री की अवधारणा को पुष्पित, पल्लवित और संवर्धित करते हुए अखिल विश्व के जन-जन तक विस्तीर्ण कर रहे हैं। उनकी आध्यात्मिक अन्तर्यात्रा नूतन अर्थों और प्रतिमानों का विन्यास तो रचती/गढ़ती ही है, मानवीय संवेदनाओं की व्यापक Xvi
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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