SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति जातिके सिक्के माना है। उसका कहना है कि दो प्रकारके ताँबेके सिक्कोंपर उदुम्बर जातिका नाम लिखा मिलता है । पहले प्रकारके सिक्कों पर एक ओर हाथी, घेरेमें बोधिवृक्ष और नीचे एक साँप है। दूसरी ओर दोतल्ला या तीनतल्ला मन्दिर स्तम्भके ऊपर स्वस्तिक और धर्मचक्र है। निश्चय ही ये पहली प्रकारके सिक्के किसी जैन धर्मानुयायी उदम्बर जातिके राजाके हैं । इन मुद्राओंमें अंकित धर्म भावना जैनधर्मकी है। हाथी द्वितीय तीर्थंकरका लाञ्छन और बोधिवृक्ष केवल ज्ञान प्राप्त करनेका संकेत है अथवा भगवान्के आठ प्रातिहार्यों से पहला प्रतिहार्य है । नीचे साँप अंकित है वह तेईसवें तीर्थङ्कर भगवान् पार्श्वनाथका चिन्ह है । अतः मुद्राको प्रथम पीठिका जैन संकेतोंमें युक्त है । दूसरी पी ठिकामें जो मन्दिर स्तम्भके ऊपर स्वस्तिक और धर्मचक्र बताये गये हैं, वे भी जैन प्रतीक हैं । मन्दिरके स्तम्भके ऊपर स्वस्तिक और धर्मचक्र अंकित करनेकी प्रणाली आज भी जहाँ-तहां पाई जाती है। स्वस्तिकको जैन धर्ममें मंगलकारी माना गया है। कहीं-कहीं स्याद्वाद दर्शनका प्रतीक भी स्वस्तिकको माना है । जो व्यक्ति उसे स्याद्वाद दर्शनका प्रतीक मानते हैं वे इसका अर्थ सु = समस्त, अस्ति = स्थिति क= प्रकट करनेवाला अर्थात् समस्त संसारकी समस्त वस्तुओंकी वास्तविक स्थिति प्रकट करनेकी सार्मथ्य स्याद्वाद दर्शनमें है, अतः स्वस्तिक स्याद्वाद दर्शनका प्रतीक है। प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थोंमें ग्रन्थ आरम्भके पहले स्वस्तिक चिह्न तथा ग्रन्थ समाप्त करनेपर भी स्वस्तिक चिह्न मंगलसूचक होनेके कारण दिया गया है। स्वस्तिकमें जैन मान्यतानुसार जीवनकी भी अभिव्यञ्जना वर्तमान है। स्वस्तिकके किनारेदार चारों ओर चार गतियोंके प्रतीक है । जीव-अधर्म-स्वभाव बहिर्मुख होने के कारण तिर्यञ्च, मनुष्य और देव गतियोंमें परिभ्रमण करता है, जब यह धर्म स्व-स्वभावमें स्थिर हो जाता है तो प्रभु बन जाता है । धर्म स्वभावका द्योतक मध्य बिन्दुसे हटकर कोई भी स्थान है, जो बन्धका कारण है। जैन मान्यताओंमें स्वस्तिकको प्रत्येक शिल्प, ग्रन्थ, मुद्रा आदिमें अंकित इसलिए किया गया है कि जीव अपने स्वभाव को पहचानकर चतुर्गतिके परिभ्रमणसे छुटकारा पा सके। ___ धर्मचक्र जैन संस्कृतिका प्रमुख प्रतीक है, इसकी गणना अर्हन्तके अतिशयोंमें की गयी १. Coins of Ancient India P. 88. P. Journal of Procerdings of the Asiatic Society of Bengal Vol x, Numismatic Supplement No XXIII P. 247. Coins of Ancient India P. 68. ३. उच्चर शोकतरुसंश्रितमुन्मयूख माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम् । स्पष्टोल्लसत्किरणमस्ततमोवितानं बिम्बं रवेरिव पयोधरपार्श्ववति ॥ - -भक्तारस्तोत्र पद्य संग्रह 28 ४. देखें-श्री जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १०, किरण १, पृ० ५९-६० तथा Baranett, Antiauilities of India P. 253,
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy