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________________ १८४ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान १२वीं सदीके उपरान्त १६वीं सदी तक गुजरात और दक्षिणमें जैन चित्रकलाका पर्याप्त विकास हुआ। निशीथचूणि, अंगसूत्र, त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित्र, नेमिनाथ चरित्र, कथारत्न सागर दिगम्बर पूजा-पाठोंके गुटके संग्रहणीयसूत्र, उत्तराध्ययन, कल्पसूत्र, जैन रामायण, त्रिलोकसार, त्रिलोक प्रज्ञप्ति, भक्तामर, धवलाटीका इत्यादि जैन ग्रंथ सचित्र पाये जाते हैं । इस जैन चित्रित ग्रंथ शैलीकी परम्पराके कारण इस चित्र शैलीका नाम जैन शैली रखा जाय तो अनुचित न होगा; क्योंकि इस जैन परम्परापर जैनेतर भी कई ग्रन्थ सचित्र लिखे गये । जैनोंमें सचित्र ग्रंथोंकी दो प्रणालियां है, पहलीमें विषय द्वारा समझानेका यत्न किया गया है, समस्त धर्मकथाको चित्रों द्वारा ही अभिव्यक्त किया है । इस शैलीमें जैन रामायण और भक्तामर प्रमुख हैं । भक्तामरके प्रत्येक श्लोकके भावको एक-एक चित्र द्वारा व्यक्त किया गया है, इसी प्रकार रामायणकी कथाको जैन परम्पराके अनुसार चित्रोंमें बताया है, प्रत्येक पृष्ठके दोनों ओर जितनो कथा दी है, उतनी कथाको व्यक्त करने वाले चित्र भी दिये हैं। दूसरी प्रणालीमें ग्रन्थके विषयसे बाह्य चित्र दिये जाते हैं, इसमें चित्रका सम्बन्ध विषयसे नहीं रहता है, प्रत्युत उसको सौन्दर्य वृद्धिके लिये या अन्य हृदयगत भावनाओंको स्फुट करनेके लिये चित्रोंका अंकन करते हैं । इस मध्यकालीन जैन चित्रकलाके सम्बन्धमें एक विद्वान्ने लिखा है "सच पूछिए तो मध्यकालीन चित्रकलाके अवशेषोंके लिये हम मुख्यतः जैन भण्डारोंके आभारी हैं । पहली बात तो यह है कि इस कालमें प्रायः एक हजार वर्ष तक जैनधर्मका प्रभाव भारतवर्षके एक बहुत बड़े हिस्से में फैला हुआ था। दूसरा कारण धनी-मानी जैनियोंने बहुत बड़ी संख्यामें धार्मिक ग्रन्थ ताड़पत्रपर लिखित और चित्रित (Illuminated) कराकर बंटवाये थे । अतएव संक्षेपमें यही कहा जा सकता है कि माधुर्य, ओज और सजीवता जैन चित्रकलामें पूर्ण रूपसे वर्तमान है। जैन संगीतकला-इस कलाका आधार इन्द्रियगम्य है, पर इसका अधिक सम्बन्ध नादसे है । संगीतमें आत्माकी भीतरी ध्वनिको प्रकट किया जाता है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि नादको सहायतासे हमें अपने आन्तरिक आह्लादको प्रकट करनेमें बड़ी सुविधा होती है । संगीतका प्रभाव भी व्यापक, रोचक और विस्तृत होता है। जैन प्राचीनकालसे ही इस कलाका उपयोग करते चले आ रहे हैं। जैन वाङ्मयमें संगीतको क्रियाविशाल नामके पूर्व में अन्तर्भूत किया है अर्थात् संगीतको वाङ्मयका एक अंग बताया है, इसीलिये प्राचीनकालमें ही इस विषयपर अनेक रचनाएँ हुई थीं। जैन पुराणोंमें ऐसे अनेक वर्णन हैं, जिनमें जैन राजाओं, उनकी रानियों तथा अन्य लोगोंका संगीतज्ञ होना बताया गया है । भक्तिके प्रबल वेगको बढ़ानेके लिए मन्दिरोंमें गायन और वादनका प्रयोग होता था। नागकुमार चरित्रसे पता लगता है कि स्वयंवरमें कन्याएँ आगत राजकुमारोंको चेलेंज देती थीं कि जो उन्हें वीणावादन और संगीतमें पराजित कर देगा, वही उनका प्राणेश्वर हो सकेगा। इस ग्रन्थमें कवि पुष्पदन्तने लिखा है कि नागकुमारने स्वयं मन्दिरमें वीणा बजायी १. विशेष जाननेके लिये देखें-जैन सिद्धान्त भास्कर भाग ५ किरण २ पृ० १०३-१४० तथा भास्कर भाग १२ किरण १ पृ० ४ २. देखें-जैन सिद्धान्त भास्कर भाग १२ किरण १ पृ० ५
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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