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________________ १८० भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान है । इन मूत्तियोंका समय ई० पू० ३००-२०० के लगभग बताया जाता है। सुदूर प्राचीन कालमें जैनमूत्तियोंकी केवल रूपरेखा (out line) ही बनायी जाती थी, शिल्पी किसी विशाल पत्थरमें केवल आकृति चिन्हित कर देता था। कुछ समयके उपरान्त पत्थर काटकर मूत्ति गढनेकी प्रथा प्रचलित हुई । श्रवणबेल्गोलाकी प्रसिद्ध मूत्तिके सम्बन्धमें अनेक विद्वानोंका मत है कि चामुण्ड रायके पूर्व उस मूर्तिकी रूपरेखा ही अंकित थी। चामुण्डरायने उसी रूपरेखाके आधारपर मूर्तिका गढ़न कराया है । यह मूत्ति ५७ फुट ऊँची, विशालकाय खड्गासन है और संसारकी अद्भुत और रमणीय वस्तुओंमें से एक है । इसके सिरके बाल घुघराले, कान बड़े, और लंबे, वक्षस्थल चौड़ा, नीचेको लटकती हुई विशाल भुजाएँ एवं कटि किञ्चित् क्षीण है । मुखपर दिव्य कान्ति और अगाध शान्ति है। घुटनोंसे कुछ ऊपर तक बमीठे बनाये गये हैं, जिनसे सर्प निकलते हुए अंकित किये गये हैं । दोनों पैर और भुजाओंमें माधवीय लताएं लिपटी हुई हैं, इतने पर भी मुखसे दिव्य आभा, अद्भुत शान्ति, तथा दुर्धर तपकी छटा टपकती है । यह मूत्ति तपस्याका साक्षात् अवतार मालूम होती है। सिंहासन प्रफुल्लित कमलके आकारका है, इस कमलपर बायें चरणके नीचे तीन फुट चार इञ्चका माप खुदा हुआ है। कहा जाता है कि इस मापको अठारहगुना कर देनेपर समस्त मूर्तिका परिमाण निकल आता है। यह मूर्ति समस्त विश्वकी अपूर्व वस्तु है, इसकी जोड़ीकी दूसरी मूत्ति आज संसारके किसी भी कोनेमें नहीं है। दक्षिणमें बाहुबलि स्वामीकी दो मूत्तियाँ और हैं एक कारकलमें और दूसरी वैणूरमें। प्रथम स्थानकी मूत्ति ४१ फीट ५ इंच ऊँची और १० फीट ६ इञ्च चौड़ी है और दूसरे स्थानकी ३५ फुट ऊँची है । ये दोनों मूत्तियाँ भी अपने अनुपम सौन्दर्य, अगाध शान्ति और अद्भुत प्रभावसे अपनी ओर प्रत्येक व्यक्तिको आकृष्ट कर लेती हैं । इस प्रकार दक्षिणभारतीय जैन मूर्तिकलाके अनेक अनुपम निदर्शन वर्तमान है । जैन मूर्तिकलाकी अभिव्यञ्जना शक्ति-सत्य, शिव और सुन्दर इन तीनों गुणोंकी समन्वित रूपमें अभिव्यक्ति होना ही जैन मूर्तिकलाको विशेषता है; पर जैनकलाका सत्य अन्य सम्प्रदायोंकी कलाके सत्यसे भिन्न है । वीतरागता-विकारोंका अभाव यह वैकालिक सत्य है; क्योंकि अजर, अमर एवं अविनाशी अखण्ड आत्म तत्त्वका स्वभाव वीतरागता है, इसलिये त्रैकालिक अबाधित सत्य वीतरागी भावनाओंको उबुद्ध करना ही हो सकता है । शिव तत्त्व भी जैनोंका लोकहित तक ही सीमित नहीं है, किन्तु उनका शिव अमर आत्माकी अनुभूति या विकार रहित आत्मस्थिति है। जैन मूर्तियाँ इसी शिवकी अभिव्यञ्जना करती हैं। जैन कलाका सौन्दर्य भी लौकिक सुन्दरसे रहित लोकातीत है या बाह्य सौन्दर्याकांक्षासे रहित आन्तरिक आत्मिक गुणोंकी अभिव्यक्ति है । जैन मूर्तियोंकी मुद्रा योगमुद्रा है, जिसका अर्थ आत्मिक भावनाओंकी अभिव्यक्ति है। नासाग्र दृष्टि निर्भयता और संसारके प्रलोभनोंके संवरणकी सूचक; सिर, शरीर और गर्दनका 8. Scc Madras Epigraphical reports 1907, 1910
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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