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________________ जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति १५५ चक्रवर्ती अपनी कन्या श्रीमतीको बुलाकर उसे नाना प्रकारसे समझाता हुआ कलाओं के सम्बन्धमें चर्चा करता है। गृहिणी की स्थिति विवाहके अनन्तर वधू गृहस्थाश्रममें प्रविष्ट हो गृहिणी पद प्राप्त करती थी । विवाह भी साधारणतया किसी पवित्र स्थानमें होता था। पुण्याश्रमे क्वचित् सिद्धप्रतिमाभिमुखं तयोः । दम्पत्योः परया मूल्या कार्यः पाणिग्रहोत्सवः ।। -(पर्व३८, श्लोक १२९) अर्थात् तीर्थस्थानमें या सिद्ध प्रतिमाके सम्मुख विवाहोत्सव सम्पन्न किया जाता था। विवाहकी दीक्षामें नियुक्त वरवधू देव और अग्निकी साक्षीपूर्वक सात दिन तक ब्रह्मचर्यव्रत धारण करते थे फिर अपने योग्य किसी देशमें प्रयाणकर अथवा तीर्थभूमिमें जाकर प्रतिज्ञाबद्ध हो गृहस्थाश्रममें प्रविष्ट होते थे। दहेज आदिकी प्रथा समाजमें बिल्कुल नहीं थी। हाँ, एक बात अवश्य थी कि विवाह करनेमें कभी-कभी कठिनाइयोंका सामना करना पड़ता था। विवाहिता स्त्री अपने परिवारको सब तरहसे व्यवस्था करती थी। उस समय विवाह वासनाको पूर्तिका साधन नहीं था किन्तु संतति उत्पत्ति के लिये विवाह आवश्यक माना जाता था। प्रजासन्तत्यविच्छेदे तनुते धर्मसन्ततिः । मनुष्व मानवं धर्म ततो देवेममच्युत ।। देवमं गृहिणां धर्मं विद्धि दारापरिग्रहम् । सन्तानरक्षणे यत्नः कार्यो हि गृहमेधिनाम् ॥ -(पर्व १५, श्लोक ६३-६४) (१) विवाहिता स्त्रियोंकी वेश-भूषा अनेक प्रकारकी थी। राजपरिवार एवं धनिक परिवारोंकी महिलाएँ मणिमाणिक्य, स्वर्ण, रजतके नुपूर, करधनी, कर्णफूल एवं हारको धारण करती थीं। मनोविनोदके लिये फूलोंके आभूषण और मालाएँ भी धारण करती थीं। रेशमी वस्त्र तथा महीन सूती वस्त्रोंको भी धारण करती थीं। साधारण परिवारोंमें फूलोंके आभूषणों के साथ-साथ कम कीमतके धातुओंके आभूषण भी पहने जाते थे । प्रकृतिकी गोदमें प्रधान रूप से विचरण करनेके कारण फूलपत्तियोंसे उस समय नारियोंको अधिक प्रेम था। (२) पुरुष एकसे अधिक विवाह करता था तथा अन्तःपुरोंमें सपत्नियोंमें प्रायः कलह होता रहता था जिससे कभी कभी घरेलू जीवन दुःखमय बन जाता था । बहु विवाह की प्रथाके कारण राजपरिवारोंमें स्त्रियोंको कष्टका सामना करना पड़ता था। यद्यपि सामान्य परिवारोंमें बहु विवाहकी प्रथा नहीं थी केवल धनिक परिवारों में ही बहु विवाह होते थे। १. प्रसूनरचिताकल्पावतंसीकृतपल्लवाः । कुसुमावचये सक्ताः सञ्चरन्तीरितस्ततः ॥ लसद्दुकूलवसनः विपुलैर्जधनस्थलैः । सकाञ्चीबंधनैः कामनपकारालयामितः ॥ आदि पर्व १८ श्लो० २०४, १९५, १९६
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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