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________________ जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति १२३ देलवाड़ा ग्राममें विमल बसहि मन्दिरके पास ही उत्तम कारीगरी सहित संगमर्मरका गूढ़मण्डप, नव चौकियां, रंगमण्डप, बालानक, खत्तक, जगति एवं हस्तिशालादिका निर्माण कराया। लूढ़सिंह बसहि नामक भव्य मन्दिर करोड़ों रुपये व्यय कर तैयार कराया गया है । इस मन्दिर और देहरियोंकी प्रतिष्ठा विक्रम संवत् १२८७ से वि० सं० १२९३ तक होती रही है । इस मन्दिरकी नक्काशीका काम विमल बसहि जैसा ही है । मन्दिरकी दीवालें, द्वार, बारसाख, स्तम्भ, मण्डप, तोरण और छतके गुम्बज आदिमें केवल फूल, झाड़, बेलबूटे और झूमर आदि विभिन्न प्रकारकी विचित्र वस्तुओंकी खुदाई की है, बल्कि गज, अश्व, उष्ट्र, व्याघ्र, सिंह, मत्स्य, पक्षी, मनुष्य और देव, देवियोंकी नाना प्रकारकी मूर्तियाँ उत्कीणित हैं । इस प्रकार वस्तुपाल तेजपालने मन्दिरका निर्माण कराकर अपना नाम अमर किया है। प्रभावनाके कार्य करने वालोंमें धरणाशाहका नाम भी गणनीय है। इसके पिताका नाम कुरपाल और दादाका नाग सांगण था । माताका नाम कमिल या कर्पूरदे था । ये दो भाई थेरत्ला और धरणा। ये दोनों भाई धार्मिक प्रवृत्तिके थे और इनका निवास स्थान शिरोहीका नदिया ग्राम था। कालान्तरमें ये मालवा चले गये और वहाँसे मेवाड़में कुम्बलगढ़के समीप गालगढ़में आ बसे । यहाँ इन्होंने रणकपुरका जैन मन्दिर बनवाया । इन्होंने अजाहरि सालेरा और पिण्डवाड़ामें कई धार्मिक कार्य कराये । इनके धार्मिक कार्योंका निर्देश वि० सं० १४६५ के पिण्डवाड़ाके लेखमें और वि० सं० १४९६ के रणकपुरके अभिलेखमें पाया जाता है । धरणाशाहके भाई रत्नाके वंशज सालिमने वि० सं० १५६६ में आबूमें प्रसिद्ध चतुर्मुख आदिनाथ जिनालय बनवाया था। इसके अतिरिक्त देलवाड़ाका पिछोलिया परिवार जिनके वि० सं० १४९४ और वि० सं० १५०३ के अभिलेख मिले हैं, अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं । तीर्थमाला स्तवनमें--"मेघवीसल केल्हहेम सभीम निंबकटुकायुपासकैः" वर्णित है, जो देलवाड़ाके उल्लेखनीय श्रेष्ठि थे। इनमें केल्हका पुत्र सुरा वि० सं० १४८९ में जीवित था। निंबका उल्लेख ‘सोम सौभाग्य' काव्यके ८ वें सर्ग में आया है। यह संघपति था और इसने भुवन सुन्दरको सूरिपद दिलानेके लिए उत्सव कराया था। मेघ और वीसलने भी जैन धर्मके प्रचार और प्रसारमें योगदान दिया है। धरणाशाह द्वारा स्थापित गोड़वाड़में सादड़ीवाड़के समीप अरावलीकी छायामें स्थित रणकपुरका जैन मन्दिर उत्तरी भारतके श्वेताम्बर जैन मन्दिरोंमें अपना विशिष्ट स्थान रखता है । इस मन्दिरमें वि० सं० १४९६ का एक अभिलेख है, जिसमें धरणाशाह और उनके पूर्वजोंका परिचय विस्तारपूर्वक दिया गया है । इस परिवार द्वारा गुणराज श्रेष्ठिके साथ यात्रा और पिण्डवाड़ा सालेरा आदि स्थानोंमें मन्दिरोंका जीर्णोद्धार कराना भी वर्णित है। मन्दिर निर्माणके सम्बन्धमें बताया है कि एक बार सोमसुन्दर सूरि बिहार करते हुए रणकपुर आये। वहाँ श्रेष्ठि धरणाशाहने बड़ा स्वागत किया तथा उनके आदेश पर ही रणकपुरमें मन्दिर बनवाया, जो कि वि० सं० १५१६ तक चलता रहा। “सोम सौभाग्य काव्य" से ज्ञात होता है कि धरणाशाहने इस मन्दिरकी प्रतिष्ठाके समय बड़ा महोत्सव सम्पन्न किया था। अनेक नगर मोर ग्रामोंमें कुमकुम पत्रिकाएं भेजी गयीं। इस प्रतिष्ठामें ५२ बड़े संघ और ५५२ साधु
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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