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________________ जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति १११ एक वर्ष पूर्व उसने राज्यका परित्याग किया। और उदासीन श्रावकके रूपमें जीवन व्यतीत किया । अन्तमें तीन दिनके सल्लेखना व्रत द्वारा बंकापुरमें अपने गुरु अजितसेन भट्टारकके चरणोंमें समाधिमरण किया। कुडलरके' दानपत्रमें बताया है कि वह जिन चरण कमलोंका मधुकर प्रतिदिन अभिषेक द्वारा समस्त दोषोंको प्रक्षालित करनेवाला गुरु भक्त, व्याकरण, तर्क, दर्शन, साहित्य आदिका पण्डित, परोपकार प्रवीण एवं गुरु भक्त था । इतना ही नहीं मारसिंहने अनेक जैन विद्वानोंका भी संरक्षण किया था । वह बौखिक रत्नोंका भण्डार और प्रतिभा रूपी मोतियोंकी खान था। थोड़ेसे ही प्रयत्न और परिश्रमसे इसने सभी विद्याएँ प्राप्त कर ली थीं। वह व्याकरणका पण्डित तथा चार्वाक्, सांख्य और बौद्ध दर्शनोंके साथ तर्कशास्त्रका भी महान् विद्वान् था। जैन धर्ममें तो उसे बादि धंगलका पद प्राप्त था ।२ ___गंगवंशके राजाओंके अतिरिक्त कदम्बवंशके राजाओंमें काकुत्स्थ वर्माके पौत्र मृगेश वर्माने पांचवीं शताब्दीमें राज्य किया। राज्यके तीसरे वर्ष में अंकित किये गये ताम्रपत्रसे ज्ञात होता है कि इसने अभिषेक, उपलेपन, पूजन, भग्न संस्कार (मरम्मत) और प्रभावनाके लिए भूमि दानमें दी थी। इसी राज्यके एक अन्य दानपत्रसे इसके द्वारा किये गये श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायोंके साधुओंके सम्मानका भी निर्देश प्राप्त होता है "अत्रपूर्वमर्हच्छालापरमपुष्कलस्थाननिवासिभ्यः भगवदर्हन्महाजिनेन्द्रदेवताभ्य एकोभागः, द्वितीयोर्हत्प्रोक्तसद्धर्मकरणपरस्य श्वेतपटमहाश्रमणसंघोपभोगाय, तृतीयो निर्ग्रन्थमहाश्रमण संघोपभोगायेति । अत्र देवभाग धान्यदेवपूजाबलि चरुदेवकर्मकरभग्नक्रिया प्रवर्तनाद्यर्योपभोगाय ।" इसी अभिलेखसे यह भी अवगत होता है कि मृगेश वर्मा उभयलोककी दृष्टिसे प्रिय और हितकर था तथा शास्त्रोंके अर्थ और तत्त्वज्ञानके विवेचनमें उदारमति था। यह नय विनयमें कुशल, बुद्धिमान, प्रतिभाशाली, शूरवीर एवं त्यागी था। एक अन्य ताम्रपत्रमें बताया है कि मृगेशवर्माने अपने राज्यके आठवें वर्ष में अपने स्वर्गीय पिताकी स्मृति में पलाशिका नगरमें एक जिनालय बनाया था और उसकी व्यवस्थाके लिए भूमि दानमें दी थी। यह दान उसने यापनीयों तथा कूर्चक सम्प्रदायके नग्न साधुओंके निमित्त दिया था। इस दानके मुख्य गृहीता जैन गुरु दानकोति और सेनापति जयन्त थे। ___ मृगेशवर्माके उत्तराधिकारी राजा रविवर्माने भी अपने पिताका अनुसरण किया। उसके एक ताम्रपुत्रसे अवगत होता हूँ कि उसने जैन धर्मके लिए एक कानून बनाया था। अभिलेख में बताया है ते खेः पुण्यार्थ स्वपितुम्मत्ति दत्तवान् पुरुखेटकं जिनेन्प्रमहिमा कार्य प्रतिसंवरसरंक्रमात् अष्टाहकृतामर्यादा कात्तियान्तद्धनागमात् वार्षिकांश्चतुरोमासान् यापनी१. मैसूर आर्योलॉजिकल रिपोर्ट, सन् १९२१, पृ० २२-२३ । २. कैलाशचन्द्रशास्त्री, दक्षिण भारतमें जैनधर्म, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, पृ० ८४ । ३. जैन शिलालेख संग्रह, द्वितीय भाग, अभिलेख संख्या ९८, पृ० ७० । ४, जैन शिलालेख संग्रह द्वितीय भाग, अभिलेख संख्या ९९, पृ० ७३
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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