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________________ १०८ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान लौट आया । कलिंग पहुंचकर ग्वारवेलने प्रजाहितके कई कार्य किये उसने "तनसुतिय" नामक स्थानसे एक नहर निकालकर अपनी राजधानी को हरा-भरा बना दिया। अपने राज्यके छठे वर्षमें उसने दीन-दुःखी जीवोंको अनेक प्रकारसे सहायता की और पौर एवं जनपद संस्थाओंको अगणित अधिकार देकर प्रसन्न किया, पश्चात् दक्षिण भारतके पाण्ड्य आदि देशोंके राजाओंने स्वतः खारवेलके लिए भेंट भेजकर मैत्री स्थापित की। सातकर्णी भी निस्ते । इस प्रकार कलिंगके आस-पास पश्चिमी और दक्षिणी भारतके लोगों पर खारवेलने अपना प्रभुत्व स्थापित किया। अनन्तर खारवेलने मगध पर आक्रमण किया, पर मगध तक न पहुंचकर गोरथगिरि तक अपना अधिकार स्थापित कर कलिंग वापस लौट गया। खारवेलके आक्रमणका समाचार पाकर यूनानका सम्राट् दमित्रियस पटनेके घेरेको छोड़कर पीछे हट गया। दमित्रियसने मथुरा, पंचाल और साकेत पर अधिकार कर लिया था । दमित्रियसके हटते ही खारवेलने मगधकी राजधानी पटना पर आक्रमण किया और नन्दकालके प्रसिद्ध राजप्रासाद "सुसंग" को घेर लिया। शुग नृप पुष्यमित्र इस समय वृद्ध हो गये थे और उनका पुत्र वृहस्पतिमित्र मगधका प्रान्तीय शासक था । खारवेलने उसे अपने सम्मुख नतमस्तक होने को बाध्य किया। उसने मगधके राजकोषसे बहुमूल्य रत्नादिकके साथ कलिंग जिनकी वह प्रसिद्ध मूर्ति भी वापस ले ली, जिसे नन्दराज कलिंगसे ले आये थे। खारवेलने कलिंगमें अनेक राजभवन देव मन्दिर बनवाकर वास्तु विद्याकी उन्नति की। दक्ष शिल्पियोंने उनके लिये पच्चीकारी और नक्काशीके स्तम्भ बनाकर ललित कलाको उत्तेजना दी थी । खारवेलका राष्ट्रीय जीवन जिस प्रकार उन्नत और विशाल है उसी प्रकार उनका धार्मिक जीवन भी। उसने कुमारी पर्वत पर जैन ऋषि, मुनि और पण्डितगणोंका सम्मेलन बुलाया और जैनागमके पुनरुत्थानका प्रयास किया। जैन संघने उसे भिक्षुराज और खेमराज उपाधियोंसे विभूषित किया । ____ अन्तिम अवस्थामें खारवेल कुमारी पर्वत पर स्थित अर्हत् मन्दिरमें पहुंच गये और भक्ति भावना एवं व्रत उपवास पूर्वक अपने जीवनका यापन करने लगे। उन्होंने मुनियोंके लिए गुफाएँ एवं मन्दिर बनवाये । उनके द्वारा उत्कीणित एक अभिलेख' उदयगिरि पर्वतकी हाथी गुफामें विद्यमान है। इस अभिलेख में ई० १७० पू० वर्ष तककी घटनाएं अंकित हैं। खारवेलने जैनसंघ और जनजीवनके लिए अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किये उनका स्वर्गवास ईसा पूर्व १५२ में हुआ। ई० सन् की द्वितीय शताब्दीसे लेकर पांचवी-छठी शताब्दी तक गंगवंशके राजाओंने जैन शासनकी उन्नति की। गंगवंशका सम्बन्ध इक्ष्वाकुवंशके साथ था। ई० सन् की दूसरी शताब्दीके लगभग इस वंशके दो राजकुमार दक्षिण आये । उनके नाम दडिग ओर माधव थे। पेरूर नामक स्थानमें उनकी भेंट जैनाचार्य सिंहनन्दिसे हुई। सिंहनन्दिने उन दोनोंको शासन कार्यकी शिक्षा दी। एक पाषाण स्तम्भ साम्राज्य देवीके प्रवेशको रोक रहा था। अतः सिंहनन्दि की आज्ञासे माधवने उसे काट डाला। आचार्य सिंहनन्दिने उन्हें राज्यका शासक बनाते हुए १. जैन शिलालेख संग्रह द्वितीय भाग, अभिलेख संख्या २
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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