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________________ जैन तीर्थ इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति करहाटमहाराष्ट्रसुराष्ट्राभीरकोंकणाः । वनवासान्ध्रकर्णाटकोशलाश्चोलकेरलाः ॥ दार्वाभिसारसौवीर शूरसेनापरान्तकाः । विदेह सिन्धुगान्धारपवनाश्चेदिपल्लवाः ॥ कांवोजा रट्ट बाल्हीकतुरुष्कशक केकयाः । महापुराण में भरत चक्रवर्तीकी विजयका वर्णन करते हुए दक्षिण दिशाके राजाओंपर की गयी विजयके निरूपणमें बताया है कि चोलिकान्नालिकप्रायान्प्रायशोऽनृजुचेष्टितान् । केरलान्सरलालापान्कलगोष्ठीषु चंचुरान् ॥ पाण्ड्यान्प्रचंड दोर्दण्डान् खण्डितारातिमण्डलान् । इससे स्पष्ट है कि भरत चक्रवर्तीने चोल, पाण्ड्य, केरल आदि राजाओंको हराकर वहाँ जैनधर्मका प्रचार किया था । प्रत्येक नरेश उस युगमें पराजित देशोंमें अपने धर्मका प्रचार करता था । दूसरी बात यह है कि भगवान् ऋषभदेवके संकेतसे जब इन्द्रने प्रान्तों और देशों का वर्गीकरण किया था, उस समय जैन चैत्यालयोंका निर्माण भी हुआ था, अतः उत्तरके समान दक्षिण में भी भरत चक्रवर्तीने जैन चैत्यालयोंकी वन्दना करते हुए विजय प्राप्त की थी । पोदनपुर में दक्षिण भारतके प्रथम जैन सम्राट् बाहुबली स्वामीकी राजधानी बतायी गयी है, यह स्थान आज भी दक्षिण भारत में स्थित है । इसी प्रकार जैन साहित्यमें पोलासपुर, मदुरा, भद्दिल आदि नगरोंके नाम मिलते हैं । इन नगरोंमें भगवान् ऋषभदेवके समयमें ही जैन धर्मका प्रचार बताया गया है । दाक्षिणात्य मथुरा - मदुरा नगर, को पाण्डवोंने बसाया था। कहा गया हैसुतास्तु पाण्डोर्हरिचन्द्रशासनादकाण्ड एवाशनिपातनिष्ठुरात् । प्रगत्य दाक्षिण्यभृता सुदक्षिणां जनेन काष्ठां मथुरां न्यवेशयन् ॥ ९३ जब द्वारिका नगरी नष्ट हो गयी और कृष्ण अपने भाई बलदेवके साथ दक्षिण मथुराको चले, रास्तेमें कौशाम्बीके जंगलमें जरतकुमारने बाण चलाया, जो कि श्रीकृष्णके पाँव में लगा; जिससे उनका आत्मा इस नश्वर शरीरको छोड़कर चला गया । जब पाण्डवों को यह दुःखद समाचार मिला तो वे बलदेवसे मिलनेके लिये कौशाम्बीके जंगलमें आये और उन्हें समझा बुझाकर यह तय किया कि नारायणके शवका संस्कार श्रृंगी गिरिपर कर दिया जाय । पाण्डव दक्षिणके पल्लव देशमें भगवान् नेमिनाथका विहार अवगत कर मदुराको लौट आये और भगवान् नेमिनाथके पास जाकर जैन - दीक्षा ग्रहण कर ली । पाण्डवोंके साथ और भी कई दक्षिणी राजाओंने जैन- दीक्षा ग्रहण की, अतएव यह स्पष्ट है कि भगवान् नेमिनाथने दक्षिणके देशों में विहार कर जैनधर्मका प्रचार किया था । अथ ते पाण्डवाश्चंडसंसारभयभीरवः । प्राप्य पल्लवदेशेषु विहरंतं जिनेश्वरम् ॥ १. हरिवंश पुराण सर्ग ४५ श्लो० ७३ ।
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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