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________________ धर्म की भाषा में अपरिग्रही होता है । वैसे अपरिग्रह वृत्ति सर्वाधिक उच्चवृत्ति है । अपरिग्रही सदैव अहिंसक होगा । वाणी में सत्य होगा। वृत्ति में अचौर्य होगा । वह परस्वहरण का विचार भी नहीं करेगा। वास्तव में यह कहा जा सकता है कि - 'वह धर्म के खूटे से बँध कर अर्थोपार्जन करेगा ।' ऐसा धन ही दान को सार्थक बनाता है। कहा भी है - "सरल स्वभावी होंय, जिनके घर बहु सम्पदा ।" जैन जीवन-शैली का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग है चारित्रपालन । जहाँ साधु पूर्ण चारित्र का धारी होता है वहाँ श्रावक अणुव्रती चारित्र धारी होता है । वह जीवनपायन के साथ एक पत्नीव्रत का धारी होता है । पर्व के दिनों में ब्रह्मचर्य का पालन करता है । वह कामेन्द्रिय को अपने वश में रखता है । उसी प्रकार का भोजन व व्यवहार करता है । श्रावक गृहस्थाश्रम को विलास का साधन न मान कर धर्म की परंपरा के अक्षुण्ण रखने-हेतु संतानोत्पत्ति एक संस्कार के रूप में करता है । वह संसार को भोगते हुए भी उसे छोड़ने का ही भाव रख कर भोगोपभोग का परिमाण करता है । संतान के योग्य होने पर उसे सबकुछ सौंप कर गृहत्यागी या भोगत्यागी बनता है । यों कहें कि वह धर्म के आलंबन या खूटे से बंध कर ही काम भोग को अपनाता है और जब वह धर्म के आलंबन से ही अर्थोपार्जन करता है, संसार को भोगता है तो स्वाभाविक रूप से जब वह आवश्यकताओं से पूर्ण होता है, संतानों से संतुष्ट होता है, तो इन दोनों को भी त्याग देता है और उसका सम्बन्ध सीधे धर्म से होता है, यही धर्म उसे अंतरात्मा और परमात्मा तक ले जाता है । हर जैन का लक्ष मुक्ति ही होता है ।। इस विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि - 'जैन जीवनशैली अहिंसक, पर्यावरण की रक्षक, शांति की पोषक एवं सामाजिक सान्मजस्य की जीवन-शैली है। इसमें मानव ही नहीं पूरी जीवसष्टि के प्रति प्रेम-विश्वास करुणा के भाव हैं । __ वर्तमान में जो भी स्खलन हुआ है उसे पुनः उच्च बनाना होगा । 'हम खुद जियें और दूसरों को जीनें दें' का मंत्र ही सबको समझायें, इसीका शंखनाद करें । (ज्ञानधारा-५ ८५ बरेन साहित्य ज्ञान-५)
SR No.032453
Book TitleGyandhara 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunvant Barvalia
PublisherSaurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
Publication Year2010
Total Pages134
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size24 MB
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