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________________ हेतु शिकार, हिंसक साधन, हिंसक व्यापार, हिंसक वाणीकृत्य सभी का निषेध किया है । यही कारण है कि पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि व वनस्पतिकायिक जीवों को भी हिंसा माना है। यह अहिंसा का भाव ही पर्यावरण रक्षा का मूल सूत्र है । जैनदर्शन ने कभी विज्ञान का विरोध नहीं किया है, उल्टे जैनशास्त्रों में जितने भी उल्लेख हैं उनसे विज्ञान नई-नई खोंजे कर रहा है। ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है जिसमें जैनदर्शन ने अपनी पहुँच न बनाई । लेकिन उसने कभी अपने सोचने के दरवाजे बंध नहीं किये । भगवान महावीर के अनेकांतवाद का सिद्धांत और भाषा में स्याद्वाद का सिद्धांत इसका द्योतक है कि हमने अपने विचारों के साथ दूसरों के विचारो को सोचने-समझने का पूरा ध्यान रखा है। पृथ्वी की संरचना से लेकर उसके समस्त रहस्यों को जैनदर्शन ने अपने में समाहित किया है । इस तरह हम यह कह सकते हैं कि विश्व का वर्तमान प्रवाह किसी भी ओर बह रहा हो, परंतु जैन धर्म के सिद्धांत अतीत में भी जितने उपयोगी थे वर्तमान में भी उतने ही उपयोगी हैं । (१) हमारी शिक्षा की रूपरेखा के मूल में आत्मसंतोष, मानव और समस्त प्राणियों की रक्षा का बोध हो । अर्थात् हम अहिंसात्मक जीवन जीने के ज्ञान को प्राप्त करें । भौतिक सुखों के साथ आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान को भी जाने और समझे । यह सत्य है कि भौतिकवादी भी देह को नश्वर मानते हैं और जब वे सारे उपायों से थक जाते हैं तो कहते हैं कि - 'सब भगवान के भरोसे छोड़ दो।' यह भगवान के भरोसे छोड़ना ही इस बात का प्रमाण है कि भौतिक ज्ञान से भी ऊपर कोई ज्ञान है, जो आत्मा को शांति दे सकता है। और वह ज्ञान है धर्म का तत्त्वज्ञान । यहाँ आत्मा के साथ-साथ हमें जैन धर्म के उन सिद्धांतो को जानना होगा जो जीवन को उन्नत बनाने में सहायक हो । हम संसार को भोगते हुए भी संसार से मुक्त होने की ओर उन्मुख होते रहें । हमें उन्हें अपने नव तत्त्व, १२ व्रत, १२ भावना, ६ लेश्या,३ रत्न आदि के ज्ञान के द्वारा वर्तमान शिक्षा के साथ सामंजस्य बैठाते हुए तत्त्वज्ञान समझाना होगा । एक बात और जान लें कि धर्म की शिक्षा मात्र कागज पर लिखी शिक्षा नहीं है अपितु जीवन के प्रत्येक क्षण उपयोग में आनेवाली शिक्षा है। हम बच्चों को मानव से भगवान बनने की प्रक्रिया को समझाते चलें । (ज्ञानधारा-3 १४८ म न साहित्य SITEN-3)
SR No.032451
Book TitleGyandhara 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunvant Barvalia
PublisherSaurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
Publication Year2007
Total Pages214
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size27 MB
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