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________________ इस 'स्थानांग सूत्र' के एक उल्लेख से भी कर्म - पुनर्जन्म की मान्यता का विकास परिलक्षित होता है, जहाँ स्पष्ट कहा गया है कि लोक में किये हुए सुचीर्ण कर्मों के सुखदायी फल इस लोक में मिल सकते है, इस लोक में नहीं मिलते हैं, तो परलोक में सुखदायी फल मिलते हैं । इसी प्रकार दुश्चीर्ण कर्म का दुःखफल भी इहलोक अथवा परलोक में मिलता है । 'भगवती सूत्र' में भगवान् महावीर स्वयं स्पष्ट रूप में कहते हैं कि - "मनुष्य स्वकृत क्रिया, दुःख और वेदना का भोग करता है, परकृत का नहीं ।" कर्मों का कर्ता ही उसके फलों का भोक्ता है । जो कर्म है उनका निपहारा दो प्रकार से ही संभव है या तो इन्हें भोगा (वेदा) जाये या इनको तपस्या के द्वारा क्षय किया जाये । जैन कर्म - सिद्धांत की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ : (१) कर्म एक सार्वभौम नियम है, जो सभी संसारी जीवों को प्रभावित करता है । - (२) यह अपने आप में एक ऐसा पौद्गलिक (भौतिक) फल है, जो आत्मा के द्वारा विशेष प्रकार के पारमाणविक समुदय ( स्कन्धों ) को ग्रहण कर, उनमें अपनी आध्यात्मिक दशानुसार ( जिस में कषायिक दशा एवं प्रवृत्यात्मक दशा - दोनों का समावेश होता है ।) फल शक्ति का उत्पादन कर भोगा जाता है । (३) प्रत्येक संसारी आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध प्रवाह रूप से अनादिकाल से है । (४) कर्म के बंधन के बाद उसमें परिवर्तन की गुंजाइश होती है । (५) कर्म के कर्ता एवं भोक्ता आत्मा स्वयं है । (६) कर्म-फल- दान आत्मा को स्वतः मिलता है आदि बाह्य माध्यम से नहीं । - E (७) आत्मा ही अपने पुरुषार्थ द्वारा अनादिकालीन बद्ध-अवस्था से मुक्त हो सकती है। ---- किसी ईश्वर (८) आध्यात्मिक साधना का सारा मार्ग नये कर्म के बंधन को रोकने तथा बद्ध कर्मों के प्रभाव से मुक्त होकर उन्हें आत्मा से दूर करने की प्रक्रिया के रूप में ही है । (९) समग्र कर्मों का क्षय मोक्ष है । ज्ञानधारा-3 ૧૦૯ नैन साहित्य ज्ञानसत्र - 3
SR No.032451
Book TitleGyandhara 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunvant Barvalia
PublisherSaurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
Publication Year2007
Total Pages214
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size27 MB
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