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________________ ४४ कर्मप्रकृति २५. निरन्तरबंधिनी प्रकृतियां जघन्येनापि या अन्तर्मुहूर्तं यावन्नैरन्तर्येण बध्यन्ते ताः निरन्तरबन्धाः -- जो प्रकृतियां जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त काल तक निरन्तर बंधती रहती हैं, वे निरन्तरबंधिनी कहलाती हैं । अन्तर्मुहूर्त के मध्य में बंधव्यवच्छेद रूप अन्तर जिनका निकल गया है ऐसा बन्ध जिनका होता है, इस प्रकार की व्युत्पत्ति होने से वे निरन्तरबंधिनी हैं । अर्थात् अन्तर्मुहूर्त के मध्य में जिनका बंध अविच्छिन्न रूप से होता रहता है, उनको निरन्तरबंधिनी जानना चाहिये। ऐसी प्रकृतियां वावन हैं, जो इस प्रकार हैं— ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक, दर्शनावरणनवक, सोलह कषाय, मिथ्यात्व, भय, जुगुप्सा, अगुरुलघु, निर्माण, तैजस, कार्मण, उपघात और वर्णचतुष्क, ये सैंतालीस ध्रुवबंधिनी प्रकृतियां तथा तीर्थंकरनाम और आयु चतुष्क । इन वावन प्रकृतियों का बंध अन्तर्मुहूर्त के मध्य में विच्छेद को प्राप्त नहीं होता है । अर्थात् बंध प्रारम्भ होने के वाद ये लगातार अन्तर्मुहूर्त तक बंधती रहती हैं। २६. उदयसंक्रमोत्कृष्टा प्रकृतियां यासां विपाकोदये प्रवर्त्तमाने संक्रमत उत्कृष्टं स्थितिसत्कर्म लभ्यते, न बंधतः, ताः उदयसंक्रमोत्कृष्टाः -- जिन प्रकृतियों का विपाकोदय प्रवर्तमान होने पर संक्रम से उत्कृष्ट स्थितिसत्व पाया जाता है, बंध से नहीं पाया जाता है, वे उदयसंक्रमोत्कृष्टा प्रकृतियां कहलाती हैं । ऐसी प्रकृतियां तीस हैं -- मनुष्यगति, सातावेदनीय, सम्यक्त्व, स्थिरादिषट्क, हास्थादिषट्क, वेदत्रिक, शुभविहायोगति, आदि के पांच संहनन और आदि के पांच संस्थान, उच्चगोत्र । इन उदय को प्राप्त प्रकृतियों की जो विपक्षभूत नरकगति, असातावेदनीय और मिथ्यात्व आदि प्रकृतियां हैं, उनकी उत्कृष्ट स्थिति को बांध कर पुनः जव जीव इन्हीं उदय प्राप्त प्रकृतियों का बंध प्रारम्भ करता है, तब वध्यमान प्रकृतियों में पूर्ववद्ध नरकगति आदि पक्षभूत प्रकृतियों के दलिकों का संक्रमण करता है । क्योंकि शुभ प्रकृतियों की स्थिति अपने बंध की अपेक्षा थोड़ी होती है । इसलिये संक्रम से इनकी उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है । " २७. अनुदय संक्रमोत्कृष्टा प्रकृतियां या प्रकृतीनामनुदये संक्रमत उत्कृष्टस्थितिलाभस्ताः अनुदयसंक्रमोत्कृष्टाः -- जिन प्रकृतियों का उदय नहीं होने पर संक्रम से उत्कृष्ट स्थिति का लाभ होता है, अर्थात् उत्कृष्ट स्थिति हो जाती है, वे अनुदयसंक्रमोत्कृष्टा कहलाती हैं। ऐसी प्रकृतियां तेरह हैं- मनुष्यानुप्पूर्वी, सम्यग्मिथ्यात्व, आहारकद्विक, देवद्विक, विकलत्रिक, सूक्ष्मत्रिक और तीर्थंकरनाम । इन तेरह प्रकृतियों की उत्कृष्ट १. उक्त कथन का स्पष्टीकरण यह है- इन्हीं प्राप्त प्रकृतियों के समय पुनः नवीन प्रकृतियों का बन्ध प्रारम्भ करता है, तब इन नयी बंधने वाली प्रकृतियों में विपक्षभूत प्रकृतियों के दलिकों को संक्रमित करता है । इसलिये नयी बंधने वाली प्रकृतियों की स्थिति बढ़ जाता है । जैसे- सातावेदनीय यदि बन्धनकरण से बंधती है तो वह स्वल्प स्थिति का बंध करती है और यदि उस आत्मा ने विपक्षभूत असातावेदनीय की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की बांध ली हो और पुनः पूर्व में बंधी हुई सातावेदनीय का बंध प्राप्त करता हो तो उस समय यदि बंधनकरण से ही चले तो स्वल्प स्थिति ही बांधता है । परन्तु बंधनकरण से नहीं चलकर यदि संक्रमणकरण से चलता है तो उस नवीन बंधने वाली सातावेदनीय प्रकृति में पूर्व बंधी हुई असातावेदनीय के कर्मदलिकों का संक्रमण करता हुआ उस सातावेदनीय प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबंध कर सकता है।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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