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________________ बंधनकरण औदारिकद्विक, प्रशस्त-अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, वादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, सुःस्वर, सुभग, आदेय, यशःकीर्ति, दुःस्वर, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति, ये वयासी प्रकृतियां उभयबंधिनी हैं । क्योंकि इन प्रकृतियों का तियंच अथवा मनुष्यों के यथायोग्य उदय होने पर अथवा उदय नहीं होने पर भी बंध सम्भव है। २०. समकव्यवच्छिद्यमानबंधोदया प्रकृतियां समकमेककालं व्यवच्छिद्यमानौ बन्धोदयौ यासां ताः समकव्यवच्छिद्यमानबंधोदया:--जिन प्रकृतियों का समक अर्थात् एक काल में बंध और उदय विच्छेद को प्राप्त होता है, वे समकव्यवच्छिद्यमान बंधोदया कहलाती हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं-- संज्वलन लोभ के बिना पन्द्रह कषाय, मिथ्यात्व, भय, जुगुप्सा, हास्य, रति, मनुष्यानपूर्वी, सूक्ष्मत्रिक, आतप और पुरुषवेद, कुल मिलाकर ये छब्बीस प्रकृतियां हैं। इनमें से सूक्ष्मत्रिक, आतप और मिथ्यात्व इन पांच प्रकृतियों का मिथ्यात्व गुणस्थान में, अनन्तानुबंधी कषायों का सासादन गुणस्थान में, मनुष्यानुपूर्वी और दूसरी अप्रत्याख्यानावरण कषायों का अविरत गुणस्थान में, प्रत्याख्यानावरण कषायों का देशविरत गुणस्थान में, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा का अपूर्वकरण में, संज्वलनत्रिक और पुरुषवेद का अनिवृत्तिबादर गुणस्थान में एक साथ ही बंध और उदय विच्छेद को प्राप्त होते हैं । इसलिये ये सभी प्रकृतियां समकव्यवच्छिद्यमानबंधोदया कहलाती हैं । २१. क्रमव्यवच्छिद्यमानबंधोदया प्रकृतियां क्रमेण पूर्व बन्धः पश्चादुदय इत्येवंरूपेण व्यवच्छिद्यमानौ बन्धोदयौ यासां ताः क्रमव्यवच्छिधमानबंधोदया:-क्रम से पहले जिनका बंधविच्छेद हो और पश्चात् उदयविच्छेद हो, इसप्रकार से विच्छिन्न होने वाली प्रकृतियां क्रमव्यवच्छिद्यमानबंधोदया प्रकृतियां कहलाती हैं । ऐसी प्रकृतियां पूर्व में वक्ष्यमाण प्रकृतियों से अतिरिक्त छियासी प्रकृतियां हैं, यथा--ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक, दर्शनावरणचतुष्क इन चौदह प्रकृतियों का सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के चरम समय में बंधविच्छेद होता है और उदयविच्छेद क्षीणकषाय गुणस्थान के चरम समय में होता है। निद्रा और प्रचला का बन्धविच्छेद अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम भाग में होता है और उदयविच्छेद क्षीणकषाय गुणस्थान के द्विचरम समय में होता है । असातावेदनीय का प्रमत्तसंयत गुणस्थान में और सातावेदनीय का सयोगिकेवली के चरम समय में बंधविच्छेद होता है तथा इन दोनों ही प्रकृतियों का उदयविच्छेद सयोगिकवली के चरम समय में अथवा अयोगिकेवली के चरम समय में होता है तथा अन्तिम संस्थान का मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में, मध्यम संस्थानचतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वर नामकर्म का सासादन गुणस्थान में, औदारिकद्विक और प्रथम संहनन का अविरत गुणस्थान में, अस्थिर और अशुभ नाम का प्रमत्त गुणस्थान में, तेजस, कार्मण, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुस्वर, प्रशस्त विहायोगति और निर्माण का अपूर्वकरण के छठे भाग में बंधविच्छेद होता है, किन्तु इन उनतीस प्रकृतियों का उदयविच्छेद सयोगि जिन के प्रथम समय में होता है तथा मनुष्यत्रिक का बंधविच्छेद अविरत गुणस्थान में, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, वादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय और तीर्थंकर नामकर्म का अपूर्वकरण के छठे भाग में, यशःकीर्ति
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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