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________________ बंधतकरण सर्वघातिनी प्रकृतियों के तो सर्वघाति ही होते हैं, किन्तु देशघातिनी प्रकृतियों के कितने ही रसस्पर्धक सर्वघाति और कितने ही देशघाति, इस प्रकार मिश्र रूप होते हैं । एकस्थानक रस वाले स्पर्धक देशधातिनी प्रकृतियों के ही होते हैं, इसलिये वे देशघाति ही हैं। घाति प्रकृतियों में प्राप्त भाव यहाँ पर अवधिज्ञानावरणादि देशघाति प्रकृतियों के सर्वघाति रसस्पर्धकों में विशुद्ध अध्यवसाय से देशघाति रूप परिणमन के द्वारा घात कर दिये जाने पर और जो देशघाति रसस्पर्धक अति स्निग्ध थे, उनको अल्प रस रूप कर दिये जाने पर उनके अन्तर्गत कतिपय रसस्पर्धक भाग का (जो उदयावलिका में प्रविष्ट था) क्षय होने पर और शेष (जो उदयावलिका में प्रविष्ट. नहीं था) का विषाकोदयविष्कम्भ लक्षण वाले (व्यवधान रूप) उपशम के होने पर जीव के अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और चक्षुदर्शनादि क्षायोपशमिक गण उत्पन्न होते हैं । उस समय अवधिज्ञानावरणादि प्रकृतियों के कुछ देशघाति रसस्पर्धकों के क्षयोपशम से और कुछ देशघाति रसस्पर्धकों के उदय से, क्षयोपशम से अनुविद्ध औदयिक भाव प्रवर्तता है और जब अवधिज्ञानावरणादि प्रकृतियों के सर्वघाति रसस्पर्धक विपाकोदय को प्राप्त होते हैं, तव तद्विषयक केवल औदयिक भाव प्रवर्तता है. । मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण और अन्तराय कर्म की प्रकृतियों के तो सदैव देशघाति रसस्पर्धकों का ही उदय होता है, सर्वघाति रसस्पर्धकों का नहीं । इसलिये इन प्रकृतियों के सदा ही औदयिक और क्षायोपशमिक भाव सम्मिलित रूप से प्राप्त होते हैं, केवल औदयिक भाव कभी प्राप्त नहीं होता। इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों के उदय में भी क्षायोपशमिक भाव होना विरुद्ध नहीं है। ___ मोहनीय कर्म की अनन्तानुबंधी आदि प्रकृतियों के प्रदेशोदय होने पर क्षायोपशमिक भाव का होना अविरुद्ध है, विपाकोदय में नहीं । क्योंकि अनन्तानुबंधी आदि प्रकृतियां सर्वघातिनी हैं और सर्वघातिनी प्रकृतियों के सभी रसस्पर्धक सर्वघाति ही होते हैं, इसलिये उनके विपाकोदय में क्षयोपशम सम्भव नहीं है, किन्तु प्रदेशोदय में सम्भव है । शंका-सर्वघाति प्रकृतियों के रसस्पर्धक वाले प्रदेश भी सभी अपने घातने योग्य गुणों के घात करने रूप स्वभाव वाले होते हैं, इसलिये उनके प्रदेशोदय में भी क्षायोपशमिक भाव का होना कैसे सम्भव है ? समाधान--ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये । क्योंकि उन सर्वघाति रसस्पर्धक वाले प्रदेशों का अध्यवसायविशेष से कुछ मंद अनुभाग रूप कर विरल रूप से वेद्यमान देशघाति रसस्पर्धकों के भीतर प्रवेश कर दिये जाने से उनकी यथास्थित (सर्वघाति के रूप में स्थित) बल को अपने रूप में प्रगट करने की सामर्थ्य नहीं रहती है । इसका आशय यह है कि सर्वघाति रसस्पर्धकप्रदेशों का अध्यवसाय विशेष से मंद अनुभाग कर लेने पर उस मंद अनुभाग को विरल रूप से वेद्यमान देशघाति रसस्पर्धकों के भीतर प्रवेश करा देने पर जो सर्वघाति के रूप में बल था, उस बल को प्रगट करने की सामर्थ्य नहीं रहती है, अर्थात् सर्वघात करने की सामर्थ्य नहीं रहती है ।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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