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________________ बंधनकरण प्रकारान्तर से प्रकृतियों की विशेषता का अधिकार विपाक (फल देने रूप शक्ति) का आधार लेकर अन्य प्रकार से भी अनुयोग किया जाता है। जैसे कि विपाक की अपेक्षा प्रकृतियां दो प्रकार की होती हैं-हेतुविपाका और रसविपाका । इनमें से हेतु के आश्रय से जिनका विपाक दिखलाया जाता है, वे हेतुविपाका प्रकृतियां कहलाती हैं--हेतुमधिकृत्यविपाको निर्दिश्यमानो यास ताः हेतुविपाकाः । व पुद्गल, क्षेत्र, भव और जीव के हेतुभेद से चार प्रकार की पहले कह दी गई हैं तथा रस को मुख्य करके जिनका विपाक दिखलाया जाये वे रसविपाका प्रकृतियां कहलाती हैं--रसं मुख्यीकृत्य विपाको निर्दिश्यमानो यासां ताः रसविपाकाः। वे चार प्रकार की होती हैं- एकस्थानक रसवाली, द्विस्थानक रसवाली, त्रिस्थानक रसवाली, चतुःस्थानक रसवाली । इनमें शुभ प्रकृतियों का रस दूध, खांड आदि रसों के सदृश होता है और अशुभ प्रकृतियों का रस नीम, घोषातिकी (चिरायता) आदि के रस के समान। जो स्वाभाविक रस होता है वह एकस्थानक रस कहलाता है। दो कर्षों (मापविशेष) में आवर्तित करने (औंटने, उबालने) पर जो एक कर्ष अवशिष्ट रहता है, तत्सदृश द्विस्थानक रस होता है। पुनः तीन कर्षों में आवर्तित करने पर जो एक कर्ष अवशिष्ट रहता है, उसके सदृश त्रिस्थानक रस होता है और चार कर्षों के आवर्तन करने पर निकाले गये एक कर्ष के समान चतु:स्थानक रस होता है। एकस्थानक रस, द्विस्थानक रस आदि उत्तरोत्तर अनन्तगुणी शक्ति वाले जानना चाहिये ।' मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्यायज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, पुरुषवेद, संज्वलनकषायचतुष्क और पांचों अन्तराय, इन सत्रह प्रकृतियों में बंध का आश्रय करके (बंध की अपेक्षा) एकस्थानक, द्विस्थानक, त्रिस्थानक, चतुःस्थानक रस की परिणति पाई जाती है । इनमें जब तक श्रेणी की प्राप्ति नहीं होती है, तब तक इन सत्रह प्रकृतियों का अध्यवसाय के अनुसार द्विस्थानक, त्रिस्थानक या चतुःस्थानक रस का बंध होता है, किन्तु श्रेणी की प्राप्ति होने पर अनिवृत्तिवादर गुणस्थान (नौवें गुणस्थान) के काल के संख्यातों भागों के बीत जाने के अनन्तर इन प्रकृतियों के अशुभ होने पर भी उस समय होने वाले अत्यन्त विशुद्ध अध्यवसायों (परिणामों) के योग से एकस्थानक रस का ही बंध होता है । इस प्रकार बंध की अपेक्षा यह सभी प्रकृतियां चारों स्थानक वाले रस से परिणत पाई जाती हैं। इसके सिवाय शेष सभी शुभ और अशुभ प्रकृतियां द्विस्थानक रस, त्रिस्थानक रस और चतुःस्थानक रसवाली प्राप्त होती हैं । किन्तु कदाचित् भी एकस्थानक रसवाली नहीं पाई जाती हैं। इसका कारण यह है कि उक्त सत्रह प्रकृतियों के सिवाय हास्यादि अशुभ प्रकृतियों. के एकस्थानक रस की बंधयोग्य शुद्धि अपूर्वकरण, अप्रमत्त और प्रमत्तसंयतों में (छठे, सातवें और आठवें गुणस्थान में) नहीं होती है और जब एकस्थानक रस के बंधयोग्य परम प्रकर्ष को प्राप्त शुद्धि अनिवृत्तिवादर गणस्थान काल के संख्यातों भागों से परे उत्पन्न होती है, तव वे प्रकृतियां बंध को ही प्राप्त नहीं होती हैं । इसलिये उनका एकस्थानक रस नहीं कहा गया है। १. इसका विशेष स्पष्टीकरण परिशिष्ट में देखिये। २. गुणस्थानों में बंधयोग्य प्रकृतियों की संख्या, उनके नाम और विशेष वक्तव्य परिशिष्ट में देखिये।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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