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________________ बंधनकरण सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्व उदय की अपेक्षा अशुभ हैं, वन्ध की अपेक्षा नहीं। क्योंकि इन दोनों का वन्ध ही नहीं होता है, इसलिये इनको पृथक् रखा गया है। १३. पुद्गलविपाकिमी प्रकृतियां पुद्गले पुद्गल विषये विपाकः फलदानाभिमुख्यं यासां ताः पुद्गलविपाकिन्यः--पुद्गल में अर्थात् पुद्गल के विषयभूत शरीरादिक में जिनका विपाक अर्थात् फल देने की प्रमुखता पाई जाती है, वे पुद्गलविपाकिनी प्रकृतियां कहलाती हैं। वे छत्तीस हैं, यथा--आतपनाम, उद्योतनाम, संस्थानषट्क, संहननषट्क, नामकर्म की ध्र वोदया वारह प्रकृतियां,' आदि के तीन शरीर, अंगोपांगत्रिक, उपघात, पराघात, प्रत्येक और साधारण । ये प्रकृतियां अपना विपाक पुद्गलों (पौद्गलिक शरीर) में दिखलाती हैं। इस प्रकार का स्पष्ट लक्षण होने से ये पुद्गलविवाकिनी कहलाती हैं। शंका--रति और अरति मोहनीय कर्म का उदय पुद्गलों को प्राप्त कर होता है। जैसेकंटक आदि के स्पर्श से अरति का विपाकोदय होता है और माला, चन्दन आदि के स्पर्श से रति का विपाकोदय होता है। तब इन दोनों को भी पुद्गलविपाकिनी क्यों नहीं कहा गया है ? ___समाधान-ऐसा नहीं है। क्योंकि कंटक आदि के स्पर्श के विना भी प्रिय और अप्रिय वस्तु के दर्शन और स्मरण आदि से रति, अरति का विपाकोदय देखा जाता है। इसलिये पुद्गलों के साथ व्यभिचार आने से रति, अरति का पुद्गलविपाकीपना सिद्ध नहीं होता है। इसी प्रकार क्रोधादि विषयक प्रश्नों के बारे में भी समाधान जानना चाहिये। १४. भवविपाकिनी प्रकृतियां भवे नारकादिरूपे स्वयोग्य विपाकः फलदानाभिमुल्यं यासां ताः भवविपाकिन्यः--अपने योग्य नरकादि रूप भव में फल देने की अभिमुखतारूप विपाक जिनका होता है, वे प्रकृतियां भवविपाकिनी कहलाती हैं। क्योंकि बांधी गई आय जब तक पूर्वभब के क्षय से स्वयोग्य भव प्राप्त नहीं होता है, तब तक उदय में नहीं आती हैं । इसलिये वे भवविपाकिनी हैं। शंका-आयुकर्म के समान गतियां भी अपने योग्य भव की प्राप्ति होने पर ही उदय में आती हैं। अतएव फिर उन्हें भी भवविपाकी क्यों नहीं कहा जाता है ? समाधान-आपका कहना सत्य है। किन्तु आयु का परभव में संक्रमण से भी उदय नहीं होता है। इसलिये स्वभव के साथ व्यभिचार का सर्वथा अभाव होने से चारों आय भवविपाकी कही जाती हैं, किन्तु गतियों का परभव में भी संक्रमण से उदय होता है, इसलिये वे अपने भव के साथ व्यभिचार वाली हैं, अतः उन्हें भवविपाकिनी नहीं कहा गया है। १५. क्षेत्रविपाकिनी प्रकृतियां. ___ क्षेत्रे गत्यन्तरसंक्रमणहेतुनभःपथे विपाक: फलदानाभिमुख्यं यासां ताः क्षेत्रविपाकिन्यःदूसरी गति में (भवान्तर में) जाने के कारणभूत आकाश मार्ग रूप क्षेत्र में फल देने की अभिमुखता १. निर्माण, स्थिर, अस्थिर, अगुरुलघु, शुभ, अशुभ, तेजस, कार्मण, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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