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________________ बंधनकरण उत्पन्न होते हैं, उनके एकदेश को संज्वलन और नव नोकषाय घात करती हैं।' इसीलिये संज्वलन और नोकषायें देशघाति हैं। इस संसार में ग्रहण, धारण आदि के योग्य जिस वस्तु को जीव न दे सके, न पा सके, न भोग सके, न उपभोग कर सके, न सामर्थ्य पा सके, वह दानान्तराय आदि का विषय है। यह दान, लाभ आदि सर्वद्रव्यों का अनन्तवां भाग एक जीव को प्राप्त होता है। इसीलिये उक्त प्रकार के सर्व द्रव्यों के एकदेश विषयभूत दान आदि में विधात करने से दानान्तराय आदि देशघाति कहलाते हैं। ___ यहाँ पर देशघाति का लक्षण सर्वघाति से अन्यत्व (सर्वघाति रस से) गभित जानना चाहिये। इस कारण चारित्र के देशरूप देशविरति का प्रतिबन्ध करने वाली अप्रत्याख्यानावरण कषायों का पूर्ण चारित्र की अपेक्षा देशघातित्व नहीं है। क्योंकि चारित्रगत अपकर्ष का जनक ऐसा देशघातित्व अप्रत्याख्यानावरण कषायों में नहीं है । इसलिये अप्रत्याख्यानावरण कषायों को सर्वघाति मानने में कोई दोष नहीं है।' इस प्रकार सिद्ध हुआ कि घातिकर्मों की कुछ प्रकृतियां सर्वघातिनी हैं और कुछ देशघातिनी हैं। नाम, गोत्र, वेदनीय और आयुकर्म के अन्तर्गत जो प्रकृतियां हैं, वे घात करने योग्य गुणों का अभाव होने से कुछ भी घात नहीं करती हैं, इसलिये उन्हें अघातिनी जानना चाहिये। सर्वघातिनी प्रकृतियों का रस (अनुभाग) यद्यपि ताम्रभाजन के समान छिद्ररहित, घृतवत् अतिस्निग्ध, द्राक्षावत् (दाख की तरह) तनुप्रदेश से उपचित (संचित किया हुआ ) और स्फटिक या अम्रकवत् अतीव निर्मल होता है, तथापि अपने विषयभूत सम्पूर्ण गुण को घात करने से सर्वघाति कहलाता है एवं देशघाति प्रकृतियों का कोई रस वंश-दल (बांस की सींकों) से निर्मापित चटाई १. घाइखओवसमेणं सम्मचरित्ताई जाइं जीवस्स । ताणं हणंति देसं संजलणा णोकसाया य ॥ -कर्मप्रकृति, यशो, टीका से उद्धृत। २. उक्त कथन का स्पष्टीकरण यह है अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय रहने पर श्रुत (ज्ञान) की अपेक्षा जीव सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है और सिर्फ सम्यक्त्व की प्राप्ति में बाधक नहीं होना ही सर्वघाति का लक्षण नहीं है । क्योंकि सम्यक्त्व की तरह चारित्र भी जीव का स्वभाव है और अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से जीव को सर्वतः या देशत: चारित्र नहीं होता है। अप्रत्याख्यानावरण में अकार सर्व निषेधार्थक है। इसीलिये अप्रत्याख्यानावरण कषाय सर्वघाति है। देशघाति तो इसको तभी कह सकते थे जब यह चारित्र में न्यूनता की कारण होती। किन्तु इसके उदय रहते सर्वतः या देशतः चारित्र प्राप्त ही नहीं हो पाता है। जो मूल को ही सर्वथा उत्पन्न न होने दे तो फिर उसमें न्यूनता का विचार कैसे सम्भव है? अतः अप्रत्याख्यानावरण कषाय सर्वघाति है सव्वं देसोवजओपच्चक्खाणं नं जेसि उदयम्मि। ते अप्पच्चक्खाणा सव्वनिसेहे मओकारो॥ -विशेषा. भाष्य १२३२ ३. यहां बंध की अपेक्षा सर्वघाति प्रकृतियां बीस और देशघाति प्रकृतियां पच्चीस बतलाई हैं। लेकिन उदय की अपेक्षा सर्वघाति प्रकृतियां इक्कीस और देशघाति प्रकृतियां छब्बीस होंगी। इस प्रकार बंध और उदय में दो प्रकृतियों का अन्तर हो जाता है। इसका कारण यह है कि बंधयोग्य प्रकृतियां एक सौ बीस हैं और उदययोग्य एक सौ बाईस । क्योंकि सम्यक्त्व, सम्यगमिथ्यात्व प्रकृति का बंध तो नहीं होता है, किन्तु उदय होता है। तब सर्वघाति बीस प्रकृतियों में सम्यगमिथ्यात्व मोहनीय को मिलाने पर इक्कीस प्रकृतियां सर्वघाति और देशघाति पचीस प्रकृतियों में सम्यक्त्व प्रकृति को मिलाने पर छब्बीस प्रकृतियां देशवाति होंगी। मूल को हात है- मा
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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