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________________ दो शब्द अनन्तानन्त आत्माओं की दृश्यमान विचित्र अवस्थाओं का मूल कारण 'कर्म' ही है । कर्म के कारण ही आत्मायें विभिन्न अवस्थाओं में परिलक्षित होती हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में कर्मसिद्धान्त की ही विस्तृत विवेचना की गई है। . . . 'कर्मप्रकृति' ग्रन्थ पर संस्कृत में टीकाएं, गुजराती भाषांतर तो प्रकाशित हो चुके हैं किन्तु वे कर्मसिद्धान्त के जिज्ञासु हिन्दीभाषा के अध्येताओं के लिये विशेष उपयोगी नहीं बन सके । संवत् १९३३ में दीर्घतपस्वी श्री ईश्वरचन्दजी म. सा. के साथ विद्वद्वर्य श्री सेवन्तमुनिजी म. सा. का वर्षावास ब्यावर में था। इस वर्ष मुनिश्रीजी परीक्षाबोर्ड की रत्नाकर परीक्षा के अध्ययन में संलग्न थे। पंडित श्री हीरालालजी शास्त्री के द्वारा जब आप 'कर्मप्रकृति' ग्रन्थ का अध्ययन कर रहे थे तब अध्ययन के साथ ही आपने पंडितजी द्वारा ग्रन्थ का हिन्दी अनवाद भी लिख लिया । विद्यार्थियों के लिये उपयोगी समझकर सुज्ञ बंधु नेमचन्दजी खींवसरा ने इस हिन्दी अनुवाद को टाईप करवा लिया । आचार्यश्री प्राकृतिक चिकित्सा हेतु बीकानेर के समीपस्थ भीनासर में विराजमान थे। इस समय में हिन्दी अनुवाद की टाईप कापी आपथी के पास पहुँची । आचार्यश्रीजी जब इसका अवलोकन करने लगे तब विद्वदवर्य श्री संपतमनिजी म. सा. ने निवेदन किया--आचार्यप्रवर ! आपश्री के सान्निध्य में इसका वाचन कर लिया जाय तो उपयुक्त रहेगा। तदनन्तर आचार्यश्री के सान्निध्य में दोनों संस्कृत टीक। आदि ग्रन्थों को सामने रखते हुए संत-सती वर्ग द्वारा इसका अवलोकन होने लगा तब आचार्यप्रवर ने कर्म-सिद्धान्त के अनेकों रहस्यमय विषयों पर सुन्दर प्रकाश डाला, जो एक अभिनव चिन्तन था । मुनिश्री ने उसका लेखन करके ग्रन्थ में यथास्थान सम्बद्ध कर दिया । संघ के सुज्ञ श्रावकों को जब यह ज्ञात हुआ तो इसे कर्मसिद्धान्त के अध्येताओं के लिये बहुपयोगी समझा गया । जब यह हिन्दी अनुवाद मेरे पास पहुंचा तो मैंने श्री देवकुमारजी को संपादन करने के लिये दिया। श्री देवकुमारजी ने इसका संपादन कर, जिस किसी ग्राम में आचार्यश्री पधारते वहाँ उपस्थित होकर संपादित कापियों को आचार्यश्री के समक्ष पुनः श्रवण करवाते । आचार्यश्री ने जहाँ पर भी विशेष स्पष्टीकरण करवाया इसे विद्वद्वर्य श्री ज्ञानमुनिजी एवं देवकुमारजी ने लिपिबद्ध करके अनुवाद में यथास्थान संयोजित कर दिया। इन संपादित कापियों को मिलाने एवं संशोधित करने में विशेषकर विद्वद्वर्य श्री रमेशमानजी, विद्वद्वर्य श्री विजयमुनि जी, विद्वद्वर्य श्री ज्ञानमुनिजी एवं विद्वान श्री राममुनिजी म. सा. ने योगदान दिया। इसके अतिरिक्त अन्य संत-सती वर्ग का भी यथायोग्य योगदान प्राप्त हुआ । आचार्यश्रीजी के तत्त्वावधान में संपादन और अनुवाद आदि हुआ है। व्यस्त कार्यक्रम होते हुए भी आचार्यश्रीजी ने ग्रन्थ को अवधानता के साथ श्रवण कर गहन विषयों पर अभिनव एवं सटीक चिन्तन दिया । तदर्थ संघ, समाज आचार्यश्रीजी का ऋणी है । (७)
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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