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________________ बंधनकरण समाधान--ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये। क्योंकि वेदनीयकर्म के द्वारा प्राप्त सुख और दुःख के कारणों के मिलने पर भी चित्त को अन्यथाभाव रूप से परिणत करा देना, इन रति और अरति मोहनीय कर्मों का व्यापार है।' ४. यदुदयात् प्रियविप्रयोगादावाक्रन्दति भूपीठे लुठति दीर्घ निःश्वसिति तच्छोकमोहनीयं-- जिसके उदय से जीव प्रिय वस्तु के वियोगादि होने पर आक्रन्दन करता है, भूतल पर लोटता है और दीर्घ निःश्वास छोड़ता है, वह शोकमोहनीय है। __५. यदुदयात्सनिमित्तमनिमित्तं वा स्वसंकल्पतो बिभति तद्भयमोहनीयं--जिसके उदय से सनिमित्त या अनिमित्त अपने संकल्प से जीव डरता है, वह भयमोहनीय है । ६. यदुदयाच्छभमशुभं वा वस्तु जुगुप्सत तदजगुप्सामोहनीयं--जिसके उदय से जीव शुभ या अशुभ वस्तु से ग्लानि करता है, वह जुगुप्सा मोहनीय है।' . सोलह कषायों और नव नोकषायों की चारित्रमोह संज्ञा है । आयुकर्म को उत्तरप्रकृतियां देवायु, मनुष्यायु, तिर्यंचायु और नरकायु, ये चार आयुकर्म की उत्तर प्रकृतियां हैं ।' नामकर्म को उत्तरप्रकृतियां चौदह पिण्ड प्रकृतियां, प्रतिपक्ष रहित आठ प्रत्येक प्रकृतियां, त्रसादि दस तथा इनकी प्रतिपक्षी (स्थावरादि ) दस, कुल बीत प्रकृतियां, इस प्रकार सव मिलकर नामकर्म की बयालीस प्रकृतियां हैं । इनमें चौदह पिण्डप्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं-गति, जाति, शरीर, अंगोपांग, बंधन, संघात, संहनन, संस्थान, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, आनपूर्वी और विहायोगति । अवान्तर भेद वाली होने से १. साता और असाता वेदनीयकर्म उपस्थित सुख दुःख के साधनों, कारणों, सामग्रियों द्वारा अपना विपाक-वेदन कराते हैं। लेकिन रति-अरति मोहनीय कर्म जीव के भाव हैं, जो वेदनीयकर्मजन्य सामग्री के उपलब्ध रहने या न रहने पर उसके प्रति प्रीति-अप्रीति का भाव पैदा करते हैं। इसीलिये रति-अरति मोहनीय को वेदनीयकर्म से पृथक् कहा गया है। सारांश यह है कि वेदनीयकर्म प्रीति-अप्रति की सामग्री उपस्थित करने में निमित्तकारण हो सकता है, उपादानकारण नहीं । किन्तु उन कारणों के रहते या न रहते जीव में जो सूख-दुःख, प्रीति-अप्रीति का भाव पैदा होता है, उसका कारण रति-अरति मोहनीय हैं। इस दृष्टिकोण की अपेक्षा से ही रति-अरति मोहनीय को बेदनीयकर्म से पृथक् कहा है। २. हास्यादिषटक के लक्षणों में कहीं पर तो सनिमित्त और अनिमित्त शब्द का प्रयोग कर दिया गया है और कहीं पर नहीं, लेकिन सर्वत्र उक्त दोनों शब्दों का प्रयोग समझना चाहिये और इन दोनों शब्दों का आशय यह है कि सनिमित्त कारणवश अर्थात् तात्कालिक बाह्य पदार्थ कारण हो तो सनिमित्त और मात्र मानसिक विचार ही निमित्त हो तो अनिमित्त-अकारण, बिना कारण के ऐसा आशय विवक्षित है। ३. जिस कर्म के उदय से जीव को नरकगति का जीवन बिताना पड़ता है, उसे नरकायु कहते हैं। इसी प्रकार तिर्यंच, मनुष्य और देव आयुओं के, लक्षण समझ लेना चाहिये। नामकर्म की इन गति आदि चौदह पिंडप्रकृतियों के क्रमश: चार, पांच, पांच, तीन, पांच, पांच, छह, छह, पांच, दो, पांच, आठ, चार और दो अवान्तर भेद होते हैं। इन सब भेदों को जोड़ने से कुल पैंसठ भेद हो जाते हैं । .. गइयाईण उ कमसो चउ पण पण ति पण पंच छच्छक्कं । पण दुग पण? चउ दुग इय उत्तरभेय पणसट्ठी ।। -प्रथम कर्मग्रंथ ३० S.
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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