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________________ बंधनकरण आठ कर्मों के नाम और उनके लक्षण १. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम, ७. गोत्र ८. और अन्तराय नाम वाली कर्म की ये आठ मूल-प्रकृतियां हैं।' जिनके लक्षण क्रमशः इस प्रकार है १. ज्ञानावरण--सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि विशेषग्रहणात्मको बोधो ज्ञान, तवावियते आच्छाद्यतेऽनेनेति ज्ञानावरणं--सामान्यविशेषधर्मात्मक वस्तु के विशेष धर्म को ग्रहण करने वाला बोध ज्ञान कहलाता है, वह जिसके द्वारा आवृत्त-आच्छादित किया जाता है, उसे ज्ञानावरण कहते हैं । ....... २. दर्शनावरण--सामान्यग्रहणात्मको बोधो दर्शनं, तवावियतेऽनेनेति दर्शनावरणं-वस्तु के सामान्य धर्म को ग्रहण करने वाला बोध दर्शन कहलाता है, वह जिसके द्वारा आवृत्त किया जाये, उसे दर्शनावरण कहते हैं । ३. वेदनीय--वेद्यते आह्लादादिरूपेण यत्तद्ववनीयं-आह लाद आदि (सुख-दुःख आदि) रूप से जो वेदन किया जाये, उमे वेदनीय कर्म कहते हैं । __ यद्यपि सभी कर्म वेदन किये जाते हैं, तथापि पकजादि पदों के समान वेदनीय' यह पद रूढ़िविषयक है । अतः साता और असाता रूप ही कर्म वेदनीय कहा जाता है, शेष कर्म नहीं। ४. मोहनीय-मोहयति सदसद्विवेकविक्लंकरोत्यात्मानमिति मोहनीयं-जो आत्मा को मोहित करे अर्थात् सत्-असत् के विवेक से रहित कर दे, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। ५. आयु:--एत्यागच्छति प्रतिबन्धकतां गतिनियियासोर्जन्तोरित्यायुः, यद्वा समन्तादेति गच्छति भवान्तरसंक्रान्तौ जन्तूनां विपाकोदयमित्यायुः--जो गति से निकलने के इच्छुक जन्तु को प्रतिबन्धकंपने (रुकावटपने) को प्राप्त होता है, अर्थात् गति में से नहीं निकलने देता है, उसे आयुकर्म कहते हैं। अथवा भवान्तर में संक्रमण करने पर भी जो जीवों को सब ओर से विपाकोदय को प्राप्त हो, उसे आयुकर्म कहते हैं । ... ६. नाम-नामयति गत्यादिपर्यायानुभवनं प्रति प्रवणयति जीवमिति नाम-जो गति, जाति आदि पर्यायों के अनुभव कराने के प्रति जीव को नमावे अर्थात् अनुकूल करे, उसे नामकर्म कहते हैं । . .. ७. गोत्र--गूयते शन्यते उच्चावचैः शब्दर्यत्तद्गोत्रं उच्चनीचकुलोत्पत्त्यभिव्यंग्यः पर्यायविशेषः, तविपाकवेखं कर्मापि गोत्र-जो उच्च-नीच शब्दों के द्वारा उच्च और नीच कुल में उत्पत्ति रूप पर्याय विशेष को व्यक्त करे, उसे गोत्र कहते हैं। इस प्रकार के विपाक को वेदन कराने वाला कर्म भी गोत्र कहलाता है । अथवा जिसके द्वारा आत्मा उच्च और नीच शब्दों से कहा जाये, उसे गोत्रकर्म कहते हैं । १. (क) प्रथम कर्मग्रंथ गा. ३, (ख) प्रज्ञापना पद २१/१/२२८ (ग) उत्तरा. ३३/२-३, (घ) पंचसंग्रह ११९ । २. मुह, मोहे धातु से 'कृबहुल' (सिद्ध .हेम. ५/१/१०/२) इस सूत्र द्वारा कर्ता के अर्थ में अनीय प्रत्यय लगाने से मोहनीय शब्द बना है । ३. गत्यर्थक इण् धातु से औणादिक उस् प्रत्यय किया गया है।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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