SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बंधनकरण किन्तु नि.शेष रूप से कर्मक्षय करने के बाद ही शुद्ध सिद्धावस्था प्राप्त होती है और इस अवस्था की प्राप्ति के पश्चात् न तो शुद्ध आत्मा का संसार में अवतरण होता है और न जन्म-मरण ही। इन्हीं सब बातों को स्पष्ट करने के लिये सिद्धं के अतिरिक्त 'नि? तसर्वकर्ममलं' विशेषण दिया है। इस प्रकार गाथा के पूर्वार्ध की भगवान महावीर को नमस्कार करने रूप व्याख्या करने और पदों का सार्थक्य बतलाने के बाद अब प्रकारान्तर से गाथा के पूर्वार्ध की व्याख्या करते हैं । जिसमें भगवान महावीर के कतिपय अतिशयों का दिग्दर्शन कराया है। - 'सिद्ध' यह विशेष्य पद है और सिद्धार्थसुतं' विशेषण पद है। तब इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार करना चाहिये-- संसार से निस्तारण कराने में कारण रूप होने से जिनका श्रुत अर्थात् प्रवचन सिद्धार्थ--इष्ट प्रयोजन की सिद्धि कराने वाला है । इस प्रकार 'सिद्धार्थसुतं' पद द्वारा भगवान का वचनातिशय प्रगट किया गया है तथा संसार से निस्तारण कराने रूप अविकल सामर्थ्य बतलाई है ।' अथवा अपने ज्ञान से समस्त पदार्थों को जान लेने के कारण सिद्धार्थ अर्थात् मोक्षप्राप्त करने रूप प्रयोजन को सिद्ध करने वाले हैं सुत (पुत्र ) के समान 'सुत' यानी गणधरादिक शिष्य जिनके, इस प्रकार की अर्थावृत्ति के द्वारा भगवान का ज्ञानातिशय प्रगट किया है। साथ ही भगवान की शिष्यपरम्परा की भी विशिष्ट फलातिशयता ज्ञात होती है।४ अथवा सिद्धार्थ यह भावप्रधान निर्देश है। देव, देवेन्द्र, नरेन्द्र आदि के द्वारा वंदना, माहात्म्य प्रदर्शन आदि किये जाने के कारण सिद्धार्थ रूप से श्रुत अर्थात् विश्रुत, प्रसिद्ध हैं, इस प्रकार की आवृत्ति से भगवान का माहात्म्य-अतिशयपूजातिशय ( वदनीयता ) प्रगट होता है और निधौ तसर्वकर्ममलं इस पद से भगवान का अपायापगम अतिशय प्रगट किया ही गया है । ___इस प्रकार ग्रंथकार ने तीर्थंकरों के अनेक अतिशयों में से मुख्य चार अतिशयों को प्रगट करते हुए भगवान महावीर की वंदना की है । इसके साथ ही ग्रंथकार ने पूर्वोक्त पदों के द्वारा भगवान महावीर को वंदना करने की जिज्ञासा का भी समाधान किया है कि--'सिद्धं' सिद्ध रूपी परम पद में विराजमान हैं, सिद्धार्थश्रुतं केवलज्ञान-दर्शन रूप उत्कृष्ट अनन्त ज्योति द्वारा भूत, वर्तमान और भविष्यत् में होने वाली अनन्त १. तत्र सिद्धार्थं सिद्धप्रयोजनं संसारान्निस्तारक रणेन श्रुतं प्रवचनं यस्येत्यर्थाद वचनातिशयो लभ्यते। -कर्मप्र., यशो. टी., पृ. १ २. अनेन श्रुतस्य संसारनिस्तारणं प्रत्यविकलं सामर्थ्यमावेद्यते। -कर्मप्र., मलय टी., पृ. । ३. स्वकीयानन्तज्ञानाकलित भावावबोधात् सिद्धार्थाः सिद्धप्रयोजनाः सुता इव सुताः शिष्या गणधरादयो यस्य स तया तमित्यर्थादावृत्या ज्ञानातिशयो लभ्यते। --कर्मप्र., यशो. टी., पृ. १ ४. अनेन भगवतः संततेरपि विशिष्टफलातिशयभाक्त्वमावेदयति। । -कर्मप्र., मलय. टी., पृ. १ ५. सिद्धार्थ इति भावप्रधान निर्देशादमरनरेन्द्रादि पूजार्हत्व गुणेन सिद्धार्थतया श्रुतं प्रसिद्धमित्यर्थाच्चावृत्या पूजातिशयो लभ्यते। --कर्मप्र., यशो. टी., पृ १. ६. अपायापगमातिशयस्तुनिधौ तसर्वकर्ममलमित्यनेनावेदति । -कर्मप्र., यशो. टी., पृ.१ ७. इति भगवतोऽतिशयचतुष्टयं निष्टंकितं भवति । -कर्मप्र., यशो. टी., पृ.!
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy