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________________ इसकी व्याख्या प्रकृतिउदीरणा, स्थितिउदीरणा, अनुभागउदीरणा और प्रदेशउदीरणा इन चार प्रकार से की गई है। 3 प्रकृतिउदीरणा की लक्षण, भेद, साद्यनादिप्ररूपणा, स्वामित्व, उदीरणास्थान और उसके स्वामित्व इन छः प्रकार से व्याख्या की गई है । स्थितिउदीरणा की लक्षण, भेद, साद्यनादि प्ररूपणा, अद्धाच्छेद, स्वामित्व, इन पाँच द्वारों से व्याख्या की गई है । अनुभागउदीरणा की संज्ञा, शुभाशुभप्ररूपणा, विपाकप्ररूपणा प्रत्ययप्ररूपणा, साद्यनादिप्ररूपणा इन पांच द्वारों से विवेचना की गई है । प्रवेशउदीरणा की साधनादिप्ररूपणा और स्वामित्वप्ररूपणा से व्याख्या की गई है । उपशमनाकरण --- कर्म पुद्गलों को उदय, उदीरणा, निवत्ति, निकाचनाकरण के अयोग्य रूप से व्यवस्थापित कर देना अर्थात् सर्वथा शांत कर देना उपशमना है ।" जीव के जिस वीर्यविशेष की परिणति से कर्मपुद्गलों को उदय, उदीरणा निर्धारित निकाचना के अयोग्यरूप से व्यवस्थापित किया जाता है, उसे उपशमनाकरण कहते हैं । इस करण की मुख्य रूप से आठ द्वारों द्वारा व्याख्या की गई है । आठ द्वारों के नाम इस प्रकार हैं- १. सम्यक्त्वोत्पादप्ररूपणा, ३. सर्वविरतिलाभप्ररूपणा, ५. दर्शनमोहनीयक्षपणा, ७. चारित्रमोहनीयोपशमना, , २. देशविरतिलाभप्ररूपणा, ४. अनन्तानुबंधीविसंयोजना, ६. दर्शनमोहनीयोपशमना, ८. देशोपशमना । निधत्तिकरण -कर्म पुद्गलों का उद्वर्तना, अपवर्तना करण को छोड़कर शेष करणों के अयोग्यरूप से व्यव स्थापित होना निर्धारित है।" जीव की जिस परिणति विशेष से कर्म पुद्गलों को उद्वर्तना - अपवर्तनाकरण से अतिरिक्त शेष करणों के अयोग्य रूप से व्यवस्थापित किया जाता है, उसे निधतिकरण कहते हैं। * निकाचनाकरण -- कर्मपुद्गलों का सभी करणों के अयोग्य रूप से व्यवस्थापित होना निकाचना है ।" जीव की जिस वीर्यविशेष की परिणति से कर्मपुद्गलों को अवश्य रूप से वेद्यमान- भोगने के रूप में निबंधित किया जाता है उसे निकाचनाकरण कहते हैं । ६ भेद और स्वामी की दृष्टि से तो निधत्ति और निकाचनाकरण देशोपशमना के समान हैं । किन्तु विशेषता यह है कि नित्ति में संक्रमण नहीं होता और निकाचना में संक्रमण के साथ उद्वर्तना अपवर्तनादिकरण भी नहीं होते हैं । इस प्रकार से करणाष्टक की व्याख्या करने के बाद ग्रन्थ में उदय और सत्ता पर विचार किया गया है । उदय और सत्ता को करण नहीं कहा है, क्योंकि उदय स्वाभाविक रूप से बंधे हुए कर्मों की अबाधा पूर्ण होने पर प्रवृत्त होता है, उसमें करण की आवश्यकता नहीं रहती है। सत्ता भी बंधन और संक्रमण से स्वाभाविक होती है, अतः इसमें भी करण की आवश्यकता नहीं होती है। १. कर्मपुद्गलानामुदयोदीरणानिधत्तिनिकाचनाकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापनमुपशमना । २. उपशम्यते उदयोदीरणानिधत्तिनिकाचनाकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थाप्यते कर्म यया सोपशमना । ३. उद्वर्तनापवर्तनावर्ज शेषकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापनं निधत्ति । ४. निधीयत उद्वर्तनापवर्तनावर्जकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थाप्यते यया सा निवति । ५. समस्तकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापनं निकाचना । ६. निकाच्यते ऽवश्यवेचतया व्यवस्थाप्यते कर्म जीवेन यया सा निकाचना । ३५
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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