SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट २९५ यदि कोई यहां यह तर्क प्रस्तुत करे कि जीव प्रतिसमय कर्मबंध करता है तो उसके साथ ही समयसमय स्थितिबंध भी होता रहता है तो इस प्रकार उत्तरोत्तर कर्मदलिकों की वृद्धि की तरह स्थिति में वृद्धि होते जाना चाहिये। जैसे कि किसी एक जीव ने अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में अनन्तानुबंधी की विसंयोजना की और तत्पश्चात् वही जीव पुनः मिथ्यात्व गुणस्थान में आकर अनन्तानुबंधी का बंध करता है और तब यदि वह उसकी उत्कृष्ट स्थिति का बंध करता है तो प्रथम समय में ४० कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण बंध करे, पुनः दूसरे समय में४० कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति बंध करे तो उस अनन्तानुबंधी की स्थितिसत्ता ८० कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण मानी जाना चाहिये। समाधान--प्रथम समयबद्ध अनन्तानुबंधी के दलिकों के साथ द्वितीय समयबद्ध अनन्तानुबंधी के समान स्थिति वाले निषेकों के दलिंक मिल जाने से स्थिति नहीं बढ़ती है, केवल निषेकों में दलिकों की अधिकता होती जाती है। अनन्तानबंधी की प्रथम लता के प्रत्येक निषेक की स्थिति में दूसरे समय एक समय स्थिति के घट जाने निषेक की स्थिति एक समय कम ४० कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण रहती है और उस समय जो चालीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति बंधी, उससे दूसरे समयबद्धलता का अंतिम निषेक जिसकी ४० कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति है, उसके सिवाय शेष सर्वनिषेक प्रथम समय बद्धलता के समय ही ४० कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति के समस्थितिक निषकों के साथ मिल जाने से उतनी ही स्थिति रहती है। इसी प्रकार तृतीय, चतुर्थ इत्यादि समयबद्ध दलिकों के लिये भी समझ लेना चाहिये। असत्कल्पना से बद्धलता के निषकों की रचना का प्रारूप इस प्रकार है-- .. . ९ ५ ५६ र ९०११ १२ १३ १४ १५ १६ ११ cope --0 १९ २० २१ २२ २३ २४ २५ २६ २७ २८ २९ ३० ३१ ३२ ३ ४ ३५ ३६ 00-0000 ပုံ - रचनाप्रारूप का स्पष्टीकरण इस प्रकार है १. यथार्थरूपेण आत्मा के साथ बंधे हुए कर्मदलिक प्रतिसमय उदय में आकर निर्जीर्ण होते रहते हैं। निर्जीर्ण होने की क्रमव्यवस्था होने से उनका आकार एक समयबद्ध कर्मदलिकों की निषेकापेक्षा (उदय में आने के क्रम से) रचना करने पर पूर्वोक्त प्रमाण लता का आकार हो जाता है। २. असत्कल्पना से बद्धलता की स्थिति ५१ समय है। उसमें आदि के तीन समय अबाधाकाल हैं। ३. असत्कल्पना से एक समय में बंधने वाले कर्मदलिकों का प्रमाण ६३०० है। यद्यपि एक समय में बंधने वाले कर्मदलिकों का प्रमाण अनन्तानन्त है और उनकी स्थिति उत्कृष्ट से सत्तर, तीस आदि कोडाकोटी सागरोपम प्रमाण है। लेकिन समझने के लिए असत्कल्पना से कर्मदलिकों का उपर्युक्त प्रमाण माना है।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy