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________________ २६६ परावर्तमान १६ शुभ प्रहतियों की अनुकृष्टि का प्रारूप (सातावेदनीय, मनुष्यद्विक, देवद्विक, पंचेन्द्रियजाति. समचतुरस्रसंस्थान, वजऋषभनाराचसंहनन, शुभविहायोगति, स्थिरषट्क, उच्चगोत्र=१६) स्थिति स्थान उहर स्थिति, अनुकृष्टि प्रारम तानि अन्यानि च सागरोपम शत पृथक्त्त पल्यो असं तदेक देश और अन्य . . . . . . . .... AAA • • • •AAA • • • •ADA (अनुकृष्टिसमात).inna nge : स्पष्टीकरण गाथा ५९, ६० के अनुसार . .. .... १. परावर्तमान शुभ प्रकृतियों की अनुकृष्टि का विचार सातावेदनीय के माध्यम से किया है। ....... २. सातावेदनीय में सागरोपमशतपृथक्त्व प्रमाण स्थितिस्थानों में. १. 'तानि अन्यानि च' और पल्यो. असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिस्थानों में २. 'तदेकदेश, और अन्य' इस तरह दो प्रकार की अनुकृष्टि होती है। ३. साता की उत्कृष्ट स्थिति के जो अनुः स्थान हैं, वे सभी एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिस्थान में भी होते हैं और ___ अन्य भी होते हैं। :४. प्रारूप में २० का अंक साता की उत्कृष्टस्थिति का द्योतक है और उसके सामने दिये गये बिन्दु अनुभाग. । स्थानों के सूचक हैं। ५. समयोन उत्कृष्ट स्थितिस्थान के सूचक १९वें अंक में उन सर्व अनु. स्थानों की अनुकृष्टि २०३ अंक के बिन्दुओं द्वारा बतलाई है तथा A अन्य अनु. स्थानों का सूचक है। ये A द्वारा सूचित अन्य अनुभाग. स्थान उत्तरोत्तर अधिक जानना । यह क्रम उत्तरोत्तर सागरोपमशतपृथक्त्व तक जानना, जिसे प्रारूप में १२ के अंक तक बतलाया है। यह क्रम अभव्यप्रायोग्य असातावेदनीय की जघन्यस्थिति के बंध तक चलता है। ६. उसके आगे 'तदेकदेश और अन्य' के प्रमाण से अनुकृष्टि सातावेदनीय के जघन्य स्थितिबंध तक जानना। जिसकी अनुकृष्टि पूर्वोक्त अपरावर्तमान अशुभप्रकृतिवत् है।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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