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________________ पट खण्डों के नाम-१. जीवस्थान, २. भूद्रकबंध, ३. बंधस्वामित्व ४. वेदना, ५. वर्गणा, ६. महाबंध इन ट खण्डों के भी अनेक उपखण्ड हैं । महाबंध नामक खण्ड सब से बड़ा ३०,००० श्लोक प्रमाण है । इसमें प्रकृत्यादि चतुष्टय का सविस्तृत विवेचन मिलता है इसकी प्रसिद्धि "महाधवल" नाम से भी है। इस ग्रन्थ पर अनेक व्याख्याग्रन्थों का प्रणयन हुआ है । उनमें वीरसेनाचार्य विरचित प्राकृत- संस्कृतसंयुक्त विशालकाय टीका महत्त्वपूर्ण है, जिसे धबला टीका कहा जाता है। अनेक अनुपलब्ध व्याख्या ग्रंथों के नाम इन्द्रनन्द्रिकृत बतावतार में मिलते हैं, जो निम्न प्रकार हैं १. कुन्दकुन्दकृत परिकर्म, २. शामकुण्डकृत पद्धति, ३ तुम्बुलूरकृत चूड़ामणिपंजिका, ४. समन्तभद्रकृत टीका, ५ बप्पदेवकृत व्याख्याप्रज्ञप्ति | इस ग्रन्थ का उद्गमस्थान दृष्टिवाद नामक बारहवें अंगान्तर्गत चौदह पूर्वों में से आग्रायणीय पूर्व माना जाता है । आचार्य पुष्पदन्त ने १७७ सूत्रों में सत्प्ररूपणा अंश तक और आचार्य भूतबलि ने ६००० सूत्रों में अवशेष ग्रन्थ की समाप्ति की है कवायप्राभूत- इसके रचयिता आचार्य गुणधर हैं । इसका अपरनाम पेज्जदोषपाहुड और पेज्जदोष प्राभूत भी है। पेज्ज-प्रेम (राग) दोस-दोष (द्वेष) | प्रस्तुत ग्रंथ में राग-द्वेष अर्थात् क्रोधादिक चार कषायों का विश्लेषण किया गया है। अतः दोनों अपर नाम भी सार्थक हैं। प्रतिपादन शैली अति गूढ़, संक्षिप्त तथा सूत्रात्मक है। रचना काल संभवत: विक्रम की तीसरी शताब्दी है । ग्रन्थ में २७७ गाथाएं हैं। इसका उद्गमस्थान दृष्टिवाद नामक बारहवें अंगान्तर्गत ज्ञानप्रवाद नामक पांचवें पूर्व की दसवीं बस्तु का 'पेज्जदोष' नामक तीसरा प्राभृत माना गया है । इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार ग्रन्थ द्वारा कषायप्राभुत ग्रन्थ पर निम्न टीकाएं लिखी गई हैं, ऐसा जाना जाता है १. आचार्य यतिवृषभकृत चूर्णि सूत्र, २. उच्चारणाचार्यकृत उच्चारणावृति या मूल उच्चारणा, ३. आचार्य शामकुण्डकृत पद्धति टीका, ४. तुम्बुलूराचार्यकृत चूड़ामणि व्याख्या, ५. बप्पदेवकृत व्याख्याप्रज्ञप्ति वृति, ६. आचार्य वीरसेन - जिनसेनकृत जयधवला टीका । उपर्युक्त व्याख्या ग्रन्थों में से प्रथम और अन्तिम व्याख्या ग्रन्थ विद्यमान हैं। यतिवृषभकृत चूर्णि का ग्रन्थमान ७००० श्लोक प्रमाण है । आचार्य वीरसेन - जिनसेनकृत जयधवला टीका कषायप्राभृत की मूल और चूर्णि पर लिखी गई है। इसका प्रमाण ६०००० (साठ हजार ) श्लोक है । २०००० श्लोकप्रमाण व्याख्या आचार्य जिनसेन कृत है, उनके दिवंगत हो जाने से अवशेष ४०००० चालीस हजार श्लोकप्रमाण व्याख्या इन्हीं के शिष्य वीरसेन कृत है। इसकी रचना शक संवत् ७७५ फाल्गुन मास शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को बाटग्रामपुर में राजा अमोघवर्ष के राज्यकाल में हुई थी । कर्मप्रकृति - - इस ग्रन्थ का परिचय स्वतन्त्र अभिलेख में दिया जाएगा । इसका रचनाकाल विक्रम की पांचवीं शताब्दी संभावित है। पांचवीं शताब्दी से लेकर दसवीं शताब्दी पर्यम्स -- पांच सौ वर्षों में कोई नया आकर ग्रन्थ या प्राकरणिक विभागों में नये ग्रन्थों का लेखन हुआ हो, ऐसा प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। टीका ग्रन्थों के रूप में अनेक आचायों ने व्याख्या ग्रंथ का प्रणयन इस काल में किया २९
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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