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________________ २४६ कर्मप्रकृति प्रचना प्रयोगप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणा-- योग के निमित्त से ग्रहण किये हुए पुद्गलों के स्नेह सम्बन्धी स्पर्धक की प्ररूपणा। इस प्ररूपणा में निम्नलिखित पांच अनुयोगद्वार हैं- १. अविभागप्ररूपणा, २. वर्गणाप्ररूपणा, ३. स्पर्धकप्ररूपणा, ४. अन्तरप्ररूपणा, ५. स्थानप्ररूपणा । इन पांचों प्ररूपणाओं का वर्णन नामप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणा के अनुरूप जानना चाहिये । प्रथम स्थानसम्बन्धी प्रथम वर्गणा में समस्त पुद्गलों के स्नेहाविभाग अल्प होते हैं, उससे दूसरे शरीरस्थान की प्रथम वर्गणा के सर्व स्नेहाविभाग अनन्तगुणे, इसी प्रकार सबसे अन्तिम शरीरस्थान की वर्गणा तक अनुक्रम से अनन्तगुणे जानना चाहिए । १८. मोदक के दृष्टान्त द्वारा प्रकृतिबंध आदि चारों अंशों का स्पष्टीकरण जीव के बंधनकरण रूप वीर्यविशेष की सामर्थ्य से बंधने वाले कर्मपुद्गलों के प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश, इन चारों विभागों को मोदक के दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं। जैसे वायुविनाशक द्रव्य से निष्पन्न लड्डू स्वभाव से वायु को उपशांत करते हैं, पित्तनाशक द्रव्य से निर्मित लड्डू पित्त को और कफविनाशक द्रव्य से बने हुए लड्डु कफ को शांत करते हैं । इसप्रकार मोदक का जो पित्तोपशामक आदि स्वभाव है, वह मोदक की प्रकृति कहलाती है। उनमें से किसी मोदक की स्थिति एक दिन, किसी की दो दिन और किसी की यावत् एक मास आदि होती है, वह मोदक की स्थिति कहलाती है तथा उनमें के किसी मोदक में स्निग्ध, मधुरादि रस एकस्थानक होता है, किसी में द्विस्थानक आदि होता है, वह मोदक का रस कहलाता है तथा उसी मोदक का कण आदि रूप प्रदेश किसी का एक तोला प्रमाण, किसी का दो तोला प्रमाण इत्यादि होता है, वह मोदक का प्रदेश कहलाता है । इसीप्रकार कर्मदलिकों में से कोई ज्ञान गुण को आवृत्त करता है, कोई दर्शन गुण को तो कोई सुख-दुःख उत्पन्न करता है और कोई मोह उत्पन्न करता है। इसप्रकार का स्वरूप कर्म की प्रकृति है तथा उसी कर्म में से किसी की जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट तीस कोडाकोडी, तो किसी की सत्तर कोडाकोडी सागर इत्यादि कालप्रमाण स्थिति, वह कर्म की स्थिति कहलाती है जो यथास्थान समझ लेना चाहिये तथा रस भी किसी कर्म का एकस्थानक और किसी का द्विस्थानक इत्यादि । किसी कर्म के प्रदेश अधिक होते हैं और किसी के अधिकतर होते हैं इत्यादि। इसप्रकार के बंध के नाम क्रमशः प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, रसबंध और प्रदेशबंध हैं। १९. मूल और उत्तर प्रकृतियों में प्रदेशाग्राल्पबहुत्व दर्शक सारिणो मूल प्रकृतियों में कर्मदल का विभाग क्रम कर्म का नाम अल्प-बहुत्व अल्प (तो भी अनन्त) उससे विशेषाधिक , स्वस्थान में दोनों का तुल्य १. आयु कर्म २. नाम , ३. गोत्र , ४. ज्ञानावरण कर्म ] दर्शनावरण , अन्तराय , ७. मोहनीय , ८. वेदनीय , विशेषाधिक स्वस्थान में तीनों का तुल्य
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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